jain pooja – जैन पूजा / जैन पूजा-पीठिका

       

      jain pooja/ जैन पूजा

  नित्य-पूजा-पीठिका

 

ॐ जय जय जय नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु

 

 णमो अरिहंताणं,

 णमो सिद्धाणं

 णमो आइरियाणं ।

 णमो उवज्झायाणं,

 णमो लोए सव्वसाहूणं ॥

 

 ॐ ह्रीं अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि)

 

चत्तारि मंगलं अरिहंत मंगलं सिद्ध मंगलं

साहु मंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ।

 

चत्तारि लोगोत्तमा अरिहंत लोगोत्तमा

सिद्ध लोगोत्तमा साहु लोगोत्तमा

केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमो ।

 

चत्तारि सरणं पव्वज्जामि अरिहंत सरणं पव्वज्जामि

सिद्ध सरणं पव्वज्जामि साहु सरणं पव्वज्जामि

केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि ।

 

ॐ नमोऽर्हते स्वाहा (पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि )

 

अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा ।

ध्यायेत्पञ्च- नमस्कारं, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥

अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।

यः स्मरेत्परमात्मानं, स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ||२||

 

अपराजितमंत्रोऽयं, सर्व-विघ्नविनाशनः ।

मंगलेषुच सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मतः ॥३॥

एसो पंच- णमोयारो, सव्वपावप्पणासणो ।

मङ्गलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥४॥

अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः ।

सिद्धचक्रस्य सद् बीजं, सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥५॥

कर्माष्टक विनिर्मुक्तं, मोक्षलक्ष्मीनिकेतनम् ।

सम्यक्त्वादिगुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥६॥

विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, शाकिनीभूतपन्नगाः ।

‘विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥

 

        पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि 

 

पंचकल्याणक का अर्घ

 

उदकचंदन’ तण्डुल पुष्पकैश्चरु सुदीप सुधूप फलार्घकैः

धवलमङ्गलगान -रवाकुले, जिनगृहे कल्याणमहं यजे ॥

 

 ॐ ह्रीं भगवतो गर्भजन्मतपोज्ञाननिर्वाणकल्याणकेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

                 पंचपरमेष्ठी का अर्घ 

 

उदकचंदन तण्डुल पुष्पकैश्चरु सुदीप सुधूप फलार्घकैः

धवलमङ्गल-गानरवाकुले, जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥

 

 ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

            जिनसहस्रनाम का अर्घ 

 

उदकचंदन तण्डुल पुष्पकैश्चरु सुदीप सुधूप फलार्घकैः

धवलमङ्गलगान – रवाकुले, जिनगृहे जिननाम यजामहे ||

 

 ॐ ह्रीं श्रीभगवज्जिनाष्टोत्तरसहस्रनामभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

 जिनवाणी का अर्घ

 

उदकचंदन तण्डुल पुष्पकैश्चरु सुदीप सुधूप फलार्घकैः

धवलमङ्गलगान-रवाकुले, जिनगृहे जिनसूत्रमहं यजे ||

 

ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इत्यादितत्त्वार्थसूत्रदशाध्याय अर्ध्य…|

 

    पूजा-प्रतिज्ञा-पाठः

श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्द्य जगत्त्रयेशं,

स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयार्हम् ।

श्रीमूलसंघसुदृशां सुकृतैकहेतुर्,

जैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाऽभ्यधायि ||१||

 

स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुङ्गवाय,

स्वस्ति स्वभावमहिमोदयसुस्थिताय ।

स्वस्ति प्रकाशसहजोर्ज्जितदृङ्मयाय,

स्वस्ति प्रसन्नललिताद्भुत-वैभवाय ॥२॥

 

स्वस्त्युच्छलद्विमलबोधसुधाप्लवाय,

स्वस्ति स्वभाव-परभाव-विभासकाय ।

स्वस्ति त्रिलोकविततैकचिदुद्गमाय,

स्वस्ति त्रिकाल-सकलायत-विस्तृताय |३|

 

द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं,

भावस्य शुद्धिमधिकामधिगन्तुकामः ।

आलम्बनानि विविधान्यवलम्ब्य वल्गन्,

भूतार्थयज्ञपुरुषस्य करोमि यज्ञम् ||४||

 

अर्हन् ! पुराणपुरुषोत्तम ! पावनानि,

वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव ।

अस्मिञ्ज्वलद्विमल – केवलबोधवह्नौ,

पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ||५||

 

ॐ विधियज्ञप्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमाग्रे पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ।

 

              स्वस्तिमंगलपाठः

 

श्रीवृषभो नः स्वस्ति    स्वस्ति श्री अजितः

श्रीसंभवः स्वस्ति       स्वस्ति श्रीअभिनन्दनः

श्रीसुमतिः स्वस्ति      स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः

श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति      स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः

श्रीपुष्पदंतः स्वस्ति    स्वस्ति श्री शीतलः

श्रीश्रेयान् स्वस्ति        स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः

श्रीविमलः स्वस्ति       स्वस्ति श्री अनन्तः

श्रीधर्मः स्वस्ति          स्वस्ति श्रीशान्तिः

श्रीकुन्थुः स्वस्ति        स्वस्ति श्रीअरनाथः

श्रीमल्लिः स्वस्ति       स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः

श्रीनमिः स्वस्ति        स्वस्ति श्रीनेमिनाथः

श्रीपार्श्वः स्वस्ति        स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः

 

            पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि

 

       परमर्षि स्वस्ति-मङ्गल-पाठः

 

(प्रत्येक श्लोक के बाद पुष्प क्षेपण करें )

 

नित्याप्रकंपाद्भुतकेवलौघाः, स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबोधाः ।

दिव्यावधि-ज्ञानबलप्रबोधाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१॥

कोष्ठस्थ-धान्योपम-मेकबीजं, संभिन्न-संश्रोतृपदानुसारि ।

चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥२॥

संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि ।

दिव्यान्मतिज्ञानबलाद्वहंतः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥३॥

प्रज्ञा- प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः, प्रत्येक-बुद्धाः दशसर्वपूर्वैः ।

प्रवादिनोऽष्टाङ्गनिमित्तविज्ञाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः॥४॥

जंघानलश्रेणि – फलांबु-तंतु- प्रसून बीजाङ्कुर – चारणाह्वाः ।

नभोऽङ्गणस्वैरविहारिणश्च, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥५॥

अणिम्नि दक्षाः कुशला महिम्नि, लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि।

मनो-वपु-र्वाग्बलिनश्च नित्यं, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥६॥

 

सकामरूपित्ववशित्वमैश्यं, प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः ।

तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः॥७॥

दीप्तं च तप्तं च ‘महत्तथोग्रं, घोरं तपो घोर-पराक्रमस्थाः ।

ब्रह्मापरं घोरगुणं चरंतः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥८॥

 

आमर्ष- सर्वोषधयस्तथाशीर्विषाविषा दृष्टिविषाविषाश्च ।

सखेलविड्जल्लमलौषधीशाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥

क्षीरं स्रवतोऽत्र घृतं स्रवतो, मधुस्रवंतोऽप्यमृतं स्रवंतः ।

अक्षीणसंवासमहानसाश्च, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥

 

 इति परमर्षिस्वस्तिमङ्गलविधानं परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

 

             देव-शास्त्र-गुरु पूजा

       पं. द्यानतराय

 

 

प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू

गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर-पंथ जू ।

तीन रतन जगमाँहिं सु ये भवि ध्याइये,

तिनकी भक्ति प्रसाद परम पद पाइये ॥

दोहा

 

पूजों पद अरहंत के, पूजों गुरुपद सार ।

पूजों देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ॥

 

ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । 

 

ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।

 

ॐ ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । 

 

अष्टक (गीता छन्द)

 

सुरपति उरग नरनाथ तिन-करि, वन्दनीक सुपदप्रभा,

अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ।

वर नीर क्षीर-समुद्र घट भरि, अग्र तसु बहु विधि नचूँ,

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

 

दोहा

 

मलिन वस्तु हर लेत सब जलस्वभाव मल छीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जे त्रिजग – उदर मँझार प्रानी, तपत अति दुद्धर खरे,

तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ।

तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन, सरस चन्दन घसि सचूँ,

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

 

चंदन शीतलता करै तपत वस्तु परवीन ।

जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन |

 

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

यह भव-समुद्र अपार तारण, के निमित सुविधि ठई ।

अति दृढ़परम-पावन जथारथ, भक्ति वर नौका सही ॥

उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

 

तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन ।

जासों पूजौं परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

 ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जे विनयवंत सुभव्य- उर- अंबुज प्रकाशन भान हैं ।

जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग माहिं प्रधान हैं ।

लहि कुन्द-कमलादिक पहुप, भव-भव कुवेदन सों बचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

 

विविधभाँति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

 

 ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा। 

 

अति सबल मद – कंदर्प जाको, क्षुधा – उरग अमान हैं ।

दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगरुड़ समान हैं ।

उत्तम छहों रस युक्त नित, नैवेद्य करि घृत में पचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

नानाविधि संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जे त्रिजग- उद्यम नाश कीने, मोह-तिमिर महाबली ।

तिहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाशजोति प्रभावली ॥

इह भाँति दीप प्रजाल कंचन, के सुभाजन में खचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

 

स्वपरप्रकाशक ज्योति अति, दीपक तमकरि हीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

 

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।

 

जो कर्म ईंधन दहन अग्नि समूह सम उद्धत लसै ।

वर धूप तासु सुगंधिताकरि, सकल परिमलता हँसे ||

इह भाँति धूप चढ़ाय नित भव-ज्वलन माँहिं नहीं पचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

अग्निमाँहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।

लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं ।

मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुणसार हैं।

सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

जे प्रधान फलफल विषै, पंचकरण रस-लीन ।

जासों पूजों परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन |

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।

जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ ।

वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ ।।

इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूँ ।

अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूँ ॥

(आठों दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिग आनी वारन हो,

दीनन निस्तारन अधम उधारन ‘द्यानत’ तारन कारन हो ।

प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सब के स्वामी दोष हरो,

यह अरज सुनीजै ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया करो )

वसुविधि अर्घ संजोय कै, अति उछाह मन कीन ।

जासों पूजों परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन |

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्घपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

            जयमाला 

दोहा

देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।

भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥

              देव का स्वरूप

चकर्म तिरेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोपराशि |

जे परम सुगुण हैं अनंतधीर, कहवत के छ्यालिस गुणगंभीर ||१||

शुभ समवसरण शोभा अपार, शत-इन्द्र नमत कर सीस धार ।

देवाधिदेव अरहन्त देव, बन्दों मन वच तन कर सुसेव ॥

               शास्त्र का स्वरूप

जिनकी धुनि है ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप ।

दशअष्ट महाभाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत ||३||

सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूँथे बारह सुअंग ।

रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीति ल्याय ॥४ ॥

                गुरु का स्वरूप

गुरु आचारज उवझाय साध, तन नगन रत्नत्रयनिधि अगाध ।

संसार देह वैराग्य धार, निरवांछि तपें शिव-पद निहार ||५||

गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव तारनतरन जिहाज ईश ।

गुरु की महिमा बरनी न जाय, गुरुनाम जपो मन-वचन-काय ||६||

 ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्धपदप्राप्तये महाऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

 सोरठा– कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै ।

‘द्यानत’ सरधावान, अजर-अमरपद भोगवे ||७||

    इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्

(मिथ्यात्व दलन सिद्धान्त साधक मुक्ति मारग जानिए ।

करनी अकरनी सुगति दुर्गति, पुण्य पाप वखानिए ||

संसार सागर तरण तारण, गुरु जिहाज विशेखिए ।

जग मांहि गुरुसम कह ‘बनारस’ और कोउ न पेखिए ।।)

(श्रीजिनके परसाद तें सुखी रहें सब जीव ।

यातैं तन मन वचन तैं सेवो भव्य सदीव ।।)

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