SambhavNath Vidhan
संभवनाथ विधान
SambhavNath Vidhan
॥ श्री सम्भवनाथ विधान ॥
पीठिका
(दोहा)
सम्भव जिन को नमनकर, गाऊँ उनका गान ।
उन जैसा बनने लिखूँ, उनका पूज्य विधान ॥ 1॥
(ज्ञानोदय)
क्षेमपुरी जो कच्छ देश में, राजाओं की नगरी थी,
धन-धान्यों से फल-फूलों से, हरी-भरी सुख गगरी थी।
भूप रहा था विमल सुवाहन, तीर्थंकर जो भावी था,
क्लेश भाव से रहित रहा वह, धर्मी जन में नामी था ॥ 2 ॥
इक दिन उसने सोचा कारण विरति भाव के तीन रहे,
उनको जाने बिना जीव ये, विषय भोग में लीन रहे ।
प्रथम रहा है मृत्युराज के, दाँतों के हा! मध्य पड़ा,
जीने की अभिलाषा करता, अन्धकार है यही बड़ा ॥3 ॥
मैं भी अब तक अन्ध बना सा, भ्रमित हुआ हूँ भूल गया,
निज चेतन को शिव केतन को, और पाप में झूल गया।
कारण दूजा असंख्यात बस, समय मात्र की आयु रही,
पल-पल में क्षय होती है सो, आ जाती है मृत्यु यहीं ॥ 4 ॥
फिर भी इसको शरण मान, विश्वास किया था अब तक हा,
और मोह के पचड़े में पड़ गँवा दिया सब समय हहा ! ।
तथा तीसरा इच्छित वस्तु, पाने की जो अभिलाषा,
उसी धूप से तप्त दुखी पर, पूर्ण हुई नहिं मम आशा ॥5॥
यही सोच झट राज्य छोड़कर स्वयंप्रभः जिन स्वामी के,
चरणों में जा दीक्षा लेकर मुनि बनकर अभिरामी वे।
करी तपस्या तीर्थंकर पद हेतु कर्म को बाँध लिया,
और पधारे ग्रैवेयक में, लौकिक सुख सब साथ लिया ॥16 ॥
आयु पूर्णकर श्रावस्ती जो, नाम जगत विख्यात रहा।
उस नगरी का भूप जितारी, विजय प्राप्तकर ख्यात रहा।
उसकी रानी प्रिया सुषेणा, पुण्यवती थी शीलवती,
सम्भव प्रभु की माँ बनकर सौभाग्यवती बन पुत्रवती ॥7 ॥
त्रय लोकों की माँ का गौरव, उसने पाया धन्य हुई,
जन्म सुदेकर तीर्थंकर को, नारीगण में रम्य हुई।
उसी सुषेणा माँ के नन्दन, सम्भव स्वामी तव अर्चा,
करने का शुभ भाव हुआ सो, लिखी पीठिका में चर्चा ॥8 ॥
पूर्व काल का तव जीवन, आदर्श रहा जो मुनिगण में,
तीर्थंकर पद बाँधा था सो, पूज्य हुए हो त्रिभुवन में।
आप कृपा से आप भक्ति से, कार्य सफल यह हो जावे,
विधान करके भव्य आपका, पाप कर्म से बच जावे ॥9॥
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । क्षिपामि…..
पूजन प्रारम्भ
स्थापना
(ज्ञानोदय)
आप्त सुशास्ता परमेष्ठी पद, ज्योति स्वरूपी सम्भव की,
विमल अमल अविकार परमजिन, तीर्थंकर श्री गतमल की।
घोटक चिह्नी धवल कूट से निकल बने जो गतदेही,
उनकी ही मैं पूजा करता, आओ आओ गतस्नेही ॥
(दोहा)
सम्भव बैठो हृदय के, सिंहासन पर आज ।
भक्त बुलाता आपको, बनने को कृतकाज ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम्।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् ।
अष्टक
स्वर्णिम कलशों में पानी भर, पद पंकज में लाऊँ मैं,
जन्म जरा के नाश हेतु तव, पूजा आज रचाऊँ मैं ।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वणामिति स्वाहा।
चन्दन कुन्दन चाँदी की इस झारी में भर लाया हूँ,
चारु चरण की चर्चा सुनकर, अर्चा करने आया हूँ।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामिति स्वाहा।
अलिसम मैं तव पाद-पद्म का, चञ्चरीक बन आया हूँ,
तुम्हें चढ़ाकर तन्दुल मैं शिव पद पाने ललचाया हूँ।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय है।
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अक्षयपदप्राप्ताये अक्षतं निर्वपामिति
स्वाहा ।
लाल गुलाबी पीले नीले, कल्पवृक्ष के पुष्प चढ़ा,
देख आपके ब्रह्म भाव को काम भाव मम आज घटा।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा।
विविध भाँति के इष्ट-मिष्ट, नैवेद्य आपको अर्पित है,
भूख मिटाने जीवन केवल, तुमको पूर्ण समर्पित है।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मोहमची इन कृष्ण घटाओं ने श्रद्धा को छुपा दिया,
आस्था अविचल पाने तुमको, दीप चढ़ाकर पूज लिया।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते नित्य जिनालय हैं।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामिति स्वाहा।
खुशबू वाली सभी वस्तुएँ मिला धूप मैं ले आया,
कर्म धूप यह मुझे जलाती, उसे जलाने मैं आया।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते नित्य जिनालय हैं।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामिति
स्वाहा।
काजू किसमिस लौंग सुपारी, सौ-सौ श्रीफल भेंट करूँ,
फलतः रत्नत्रय को पाकर, निज आतम में पैठ सकूँ।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामिति स्वाहा।
अक्षत नैवज जल-फल लेकर, मंगलमय यह अर्ध बना,
मंगलकारी चरण-युगल में आनन्दित हूँ आज चढ़ा।
शम सुख भोक्ता सम्भव स्वामी, शुद्ध गुणों के आलय हैं,
इसीलिए हम पूजा करने आते, नित्य जिनालय हैं ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
प्रत्येक अर्ध
दोहा
सम्भव प्रभुवर आपके, गुण का नहिं है पार ।
कुछ गुण को मैं अर्घ दूँ, हे जीवन आधार ॥
इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । क्षिपामि…
जन्मातिशय के १० अर्घ
(लय – श्री वीर महाअतिवीर….)
तन औदारिक पर स्वेद, क्यों नहिं आता है,
है विस्मय की यह बात, मन भरमाता है।
सम्भव जिन की नित्य, पूजा रचवाऊँ,
श्री वीतराग को छोड़ पर को क्यों ध्याऊँ ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निःस्वेदत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
हे निर्मल संभव देह, मल नहिं उसमें है,
तव गुण गाने की देव, क्षमता किसमें है।
मैं फिर भी तेरे गीत, गाकर धन्य हुआ,
सो अर्घ चढ़ाकर मित्र! जीवन रम्य हुआ ॥ २॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निर्मलत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः
अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
है स्फटिकमणी सा रक्त, तेरे तन में जो,
वह दिखलाता वात्सल्य, सम्भव उर में जो ।
हे प्रभु सो त्रय लोक, तुमको पूज रहा,
मैं अर्चू अघ को रोक, तुम सम पूज्य कहाँ॥३॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षीरगौररुधिरत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय
नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
क्या तेरे जैसा रूप, जग में मिल पावे,
यदि देखेगा इक बार, मन में लज्जावे ।
हे सम्भव जिन तव पार, त्रिभुवन अर्चित हैं,
जो पूजेंगे दिन-रात होंगे चर्चित वे॥ ४॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौरूप्य जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो मिला श्रेष्ठ संस्थान, वह तो अनुपम है,
जो पूजें बारम्बार जग में निरुपम वे ।
हे सम्भव तव यह देह, तप में कारण है,
तव पूजा का यह कार्य, भव का वारक है ॥५॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं समचतुरस्रसंस्थान जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तव तन से आती गन्ध’, यह भी अतिशय है,
सो बने जगत में वन्द्य, पूजित गणधर से।
मम बन्दन हो सौ बार, सम्भव पद युग में,
मैं पूजूं शत-शत बार मेरे भव सुधरे ॥ ६॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौगन्ध्य जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
ये धन्य हुए सब चिह्न, तव तन आश्रय ले,
श्री सम्भव सबसे भिन्न, गुण के आश्रय हैं।
तुम उत्तम में भी देव, उत्तम उत्तम हो,
तव पूजन से अवशेष, जीवन सत्तम हो ॥ ७॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौलक्षण्य जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
है संहनन तेरा तीर्थ, किसको मिल सकता,
यदि मिल जावे तो कौन, भव का क्षय करता ।
पा शक्ति आपने आज, जो उपयोग किया,
सो वन्दनीय हैं देव, हित का काम किया ॥८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वज्रवृषभनाराच संहनन जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो शारीरिक तव शक्ति, किसमें हो सकती,
हे सम्भव अर्चा भक्ति, सबके अघ हरती ।
ये भूप जितारी नन्द, नन्दन करते है,
यदि भक्ति करे तो शीघ्र, पातक हरते हैं॥ ९ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अप्रमितवीर्य जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तव वचन रहे हैं मिष्ट प्रिय हितकारक हैं,
वे लगे सुधा सम इष्ट, पाप निवारक है।
सौभाग्य खुला मम आज, पूजा मनभायी,
ये वचन शक्ति है सार्थ, महिमा तव गायी ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं प्रियहितवादित्व जन्मातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
केवलज्ञानातिशय के १० अर्ध
(दोहा)
शतक चार सौ तक अहो, नहिं होवे दुर्भिक्ष।
सम्भव तुम ही लोक में, लगे सभी को इष्ट ॥
सम्भव जिनवर लोक में, माने वृष के ईश।
नगरी श्रावस्ती रही, झुका आपको शीश ॥११॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गव्यूतिशत चतुष्टय सुभिक्षत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री
सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
बिना मार्ग आकाश में, होता आप बिहार।
जिसे देख लगता अहो, चल आया शिवद्वार॥
मेघ नाश से आपको, आया था वैराग्य ।
पूजा का अवसर मिला, जगे हमारे भाग्य॥१२॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गगनगमनत्व घातिक्षय जातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ
जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
भोजन तुम करते नहीं, फिर भी देह सुडोल ।
घातिकर्म के नाश से, लगते गोलमटोल ॥
सुरेन्द्र नृप ने था दिया, अहो प्रथम आहार ।
फलतः उस ही जन्म से, पाया शिव का द्वार॥ १३ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भुक्त्यभावघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्राणी को बाधा कभी, हो नहिं सकती देव ।
पाया केवलज्ञान सो, सम्भव जिन अधिदेव ॥
तीन लाख श्रावक यदा, समवशरण में बैठ ।
दिव्यध्वनि में धर्म सुन, अर्घ चढ़ाते भेंट ॥१४॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अप्राणिवधत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देव असुर मानव नहीं, कर पावे उपसर्ग ।
सम्भव जिन को पूज ले, तो पावे अपवर्ग ॥
ज्ञान सुकेवल पा लिया, तपकर चौदह वर्ष ।
पूजा सबने द्रव्य से, मना-मनाकर हर्ष ॥ १५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं उपसर्गाभावघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
समवशरण में आपका, आनन चारों ओर ।
भक्तों को दिखता रहे, सो हो सुख की भोर ॥
देवपुरी’ मोहक रही, उसको ही तो छोड़ ।
भू आए सो दर्श को, हम भी आए दौड़॥१६॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुर्मुखत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मूर्त्त देह की भी प्रभो, छाया का नहिं नाम ।
सम्भव प्रभु की भक्ति से, सध जाते सब काम ॥
घोड़ा जिनका चिह्न है, सुख की जो है खान ।
पूजूं आठों याम मैं बन जाऊँ गतमान॥१७॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अच्छायत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
चंचलता अवशेष ना, पलकों की हे नाथ ।
अचरज मुझको तो लगे, सम्भव जिन भगवान ॥
रही सुषेणा नाम की, माता लोक प्रसिद्ध ।
जन्म सुदेकर के किया नारी भव को सिद्ध ॥ १८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अपक्ष्मस्पन्दत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
विद्या ऐसी कौन सी, जो नहिं आवे पास।
भाग्य मानकर आपकी, अहो बनी हैं खास ॥
मुख्य रहा श्रोता अहो, सत्यवीर इक भूप ।
पाया उसने आपसे, धर्मामृत का कूप ॥१९॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वविद्येश्वरत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नख केशों की वृद्धि का, बचा नहीं अब काम।
आप भक्ति से इष्ट सब मिल जाता निर्दाम ॥
स्वर्ण वर्ण सम्भव रहे, समवशरण के ईश।
सोलहवानी शुद्ध तुम, बने, स्वर्ण जगदीश ॥२०॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं समाननख केशत्वघातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ
जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
देवकृत अतिशय के १४ अर्थ
(छन्द – नरेन्द्र)
अर्द्धमागधी दिव्यध्वनि में, महा अठारह भाषा ।
और सात सौ लघु भाषाएँ सुनकर सुख हो खासा ।।
देवों ने आ अतिशय करके, किया समर्थन तेरा।
सम्भव स्वामी अर्घ चढ़ाकर, आनन्दित मन मेरा ॥ २१ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वार्धमागधीभाषा देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शेर-गाय हो साँप नेवला, या हो कुत्ता बिल्ली।
होती मैत्री तथा बैर की, उड़ जाती है खिल्ली ॥
सम्भव तेरी अर्चा कर मैं, ध्यान करूँ जब तेरा।
आर्त्त-रौद्र दुर्ध्यान मिटे तब आनन्दित मन मेरा ॥ २२ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजनमैत्रीभाव देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
बसन्त हो या ग्रीष्म काल हेमन्त काल जब होवे ।
सब ऋतुओं के फल-फूलों से भूमि सुशोभित होवे ॥
इसका कारण है सम्भव सामीप्य मिला जो तेरा।
सम्भव स्वामी अर्ध चढ़ाकर, आनन्दित मन मेरा॥२३॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वर्तुफलादि शोभिततरुपरिणाम देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरी धरती दर्पण जैसी पवित्र पावन होती ।
निकट पधारो जब हे सम्भव बन जाती संतोषी ॥
पूँछ उठाकर विधिमल भागे, ध्यान देखकर तेरा।
अनुपम महिमा देख आपकी, आनन्दित मन मेरा ॥ २४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयी देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पवन आपका अनुयायी बन बहता है इस भाँति ।
जैसे तेरी वाणी सुनकर, मिटे शिष्य की भ्रांति ॥
सम्भव सार्थक अर्थवान यह नाम रहा है तेरा।
जिन शासक के दर्शन करके आनन्दित मन मेरा ॥ २५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विहरण मनुगतवायुत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
प्रसन्नता की वृद्धि सदा हो उत्फुल्लित सब होवे ।
आपद – विपदा सभी विलय हो, बीज सौख्य के बोवे।।
सम्भव स्वामी भवों-भवों तक मिले समागम तेरा ।
शिवनायक की पूजा से है आनन्दित मन मेरा ॥ २६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजनपरमानन्दत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पवन जाति के देव यहाँ आ, कण्टक कंकर धूली।
दूर करेंगे जहाँ मिटेगी समवशरण की दूरी ॥
गणधर सौ अरु पाँच सदा गुणगान करे प्रभु तेरा ।
इसीलिए तो अर्घ चढ़ाकर आनन्दित मन मेरा ॥ २७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वायुकुमारोपशमितधूलिकण्टकादि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गन्धोदक की वर्षा करते भू पर अमृतभोजी ।
कहते आओ आज यहाँ पर आये चेतनभोगी ॥
श्रावस्ती तब बनी छबीली योग मिला जब तेरा।
तुरंग चिह्नी नाम सुना तो, आनन्दित मन मेरा ॥ २८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मेघकुमारकृतगन्धोदकवृष्टि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
स्वर्णिम सुन्दर सहसदलों को, युगल पाद के नीचे।
रख देते पर प्रभु रहते चतु अंगुल उनसे ऊंचे ॥
सम्भव तेरे दर्श मात्र से, भक्त बना मैं तेरा।
मिथ्यातम मम मिटा अभी सो, आनन्दित मन मेरा ॥२९॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं पादन्यासे कृत पद्यानि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाव
जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शालि धान्य की पकी फसल तब झुककर भू को छूती ।
समवशरण में भव्यात्माएँ, धर्मामृत को पीती ॥
मैं तो भूला सब कुछ सम्भव संगम पाकर तेरा।
सत्य धर्म को समझ गया सो, आनन्दित मन मेरा ॥३०॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं फलभारनम्रशालि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ
जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तत्क्षण निर्मल नभ हो चाहे बरस रहा हो पानी।
आप समागम से पापी भी होता पानी-पानी॥
श्रावस्ती वह पूज्य बनी जब जन्म हुआ था तेरा।
सम्भव जिन की पूजा करके, आनन्दित मन मेरा ॥ ३१ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शरदकालवन्निर्मल गगनत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
ढम ढम ढम ढम बजकर मुझको करे सूचना बाजे।
सुन रे प्राणी सम्भव स्वामी, आये हैं दरवाजे ॥
सो जल्दी से घर के बाहर आकर बन जा चेरा।
सुनकर आकर पूजा है सो, आनन्दित मन मेरा ॥ ३२॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं एतैतैतिचतुर्निकायामर परस्पराह्वानन देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण, सुनो दिशाएँ सारी।
शरद काल सी मल वर्जित हो, लगती सबको प्यारी॥
उसका कारण हे सम्भव संयोग मिला जो तेरा।
दुर्लभतम तव शरण मिली सो, आनन्दित मन मेरा॥३३॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शरदमेघवन्निर्मलदिग्विभागत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
धर्मचक ये आगे चलकर तेरी महिमा गावे ।
दस धर्मों के स्वामी हैं ये सबको सच बतलावे ॥
कार्य असम्भव सम्भव होवे नाम रटे जो तेरा।
वृषचक्री की पूजा करके, आनन्दित मन मेरा॥३४॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं धर्मचक्र चतुष्टय देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अष्ट प्रातिहार्य के ८ अर्घ
(लय – मुनि सकलव्रती……)
वह कल्पवृक्ष बन जाता, जब सम्भव सन्निधि पाता ।
गत शोक उसी को माना, तव भक्त बने मस्ताना ॥ ३४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अशोक वृक्ष प्रातिहार्य धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वयामिति स्वाहा।
सुर विविध पुष्प की वर्षा, वे करते तेरी अर्चा ।
जब आतम से मन जोड़ा तब सम्भव ने भव छोड़ा ॥ ३६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो चौंसठ चामर दुरते, वे जन-जन का मन हरते।
जो सम्भव मार्ग पुजारी, बन जाता वह अविकारी ॥३७॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुषष्टि चामर प्रातिहार्य धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तव पीछे बनता घेरा, वह भामण्डल सुख डेरा ।
मैं ढोल बजाकर आऊँ, श्री सम्भव के गुण गाऊँ ॥ ३८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भामण्डल प्रातिहार्य धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो ध्वनियाँ हैं आलबेली, सुन मिटती सब बैचेनी।
ये अतिशय दुन्दुभि बाजे, सुन शक सुरासुर नाचे॥३९॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं दुन्दुभि प्रातिहार्य धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जो तुम पर छत्र चढ़ावे, वे बन्धन से बच जाये।
ये धवल छत्र मनहारी, श्री सम्भव सुख भण्डारी ॥ ४
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं छत्रत्रय प्रातिहार्यं धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तव दिव्य ध्वनि जब होती, वह लगती ज्यों हो मोती।
हे सम्भव भविजन पाने, वे आते तव गुण गाने ॥४१॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं दिव्यध्वनि प्रातिहार्यं धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
है सिंहासन छवि वाला, यह मिला यदा अघ टाला।
हैं सम्भव शिव के माली, हो पूजा से खुशहाली ॥४२॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं दिव्यध्वनि प्रातिहार्यं धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अनन्त चतुष्ठय के ४ अर्घ
(लय- शांतिनाथ मुख ..)
मिटा घाति का बन्धन सारा, तब पाया था ज्ञान सु प्यारा ।
उसी ज्ञान का प्यासा आया,तुम्हें पूज मन अति हरषाया ॥ ४३ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनन्तज्ञान गुण धारक श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं
निर्वपामिति स्वाहा।
अमित सुदर्शन पाया जैसा,पा नहिं सकता कोई वैसा
तीन लोक आलोकित होते,अर्घ चढ़ा हम पातक खोते ॥ ४४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनन्त दर्शन गुण मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंचेन्द्रिय से नहीं उपजता, कर्म नाश से ही जो मिलता।
सम्भव तुमने वह सुख पाया, सो मैं पूजन करने आया ॥ ४५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनन्त सुख गुण मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नहिं सीमित नहिं अन्त रहा है,ऐसा तेरा वीर्य कहा है।
छम-छम-छम-छम नाचूँ गाऊँ,सम्भव तुमको अर्घ चढ़ाऊँ ॥ ४६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनन्त वीर्य गुण मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पंचकल्याणक के ५ अर्घ
(ज्ञानोदय-दोहा)
फाल्गुन शुक्ला आठम के दिन, स्वर्ग लोक तज आये थे,
देवों द्वारा सज्जित नगरी, श्रावस्ती को भाये थे।
स्वप्न देखकर माता ने भी, जान लिया श्री सम्भव जी
गर्भ पधारे सो कल्याणक, पूजा सुर ने तत्क्षण ही॥
दोहा
हम भी पूजे आपका, कल्याणक यह आज ।
कर्म नाश का और क्या, इससे बढ़कर काज ॥ ४७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गर्भ कल्याणक मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जैसे ही श्री सम्भव प्रभु ने, इस भू पर अवतार लिया,
दुख के दिन तब फिरे शीघ्र थे, सबने तव गुणगान किया।
दिन दूनी अरु रात चौगुनी, सुख की लहरें लहराई,
कार्तिक शुक्ला पूनम के दिन, सबने पूंजा रचवाई ॥
दोहा
जन्म महत्ता जब सुनी, ललचे मेरे नेत्र |
कल्याणक को देखने, आऊँ जन्म सुक्षेत्र ॥ ४८॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जन्म कल्याणक मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
मगसिर का वह अन्तिम दिन था, अन्तिम गति को पाने की,
ठानी थी जब सम्भव जिन ने, निज स्वरूप में आने की।
विघटन देखा मेघों का तो, भव भोगों की नश्वरता,
समझ सुदीक्षा धार तपों में, अहो बढ़ाई तत्परता ॥
दोहा
मनमोहक यह अर्घ ले, मनमोहक के पाद।
अर्पण कर मैं चाहता, संभव प्रभु तव साथ ॥ ४९ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं तप कल्याणक मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
शाल वृक्ष के नीचे सम्भव, द्वन्द्व-फन्द से दूर हुए,
शुक्ल ध्यान के बल से घातक कर्म सभी चकचूर हुए।
मैंने भी जब सुना आपने ज्ञान पाँचवाँ पाया है,
मुँह में पानी भर आया सो, अर्घ चढ़ाने आया मैं ।
दोहा
कार्तिक कृष्णा चौथ को, चार घातिया नाश।
अमिट चतुष्टय प्राप्तकर किया मोक्ष को पास ॥ ५० ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं ज्ञान कल्याणक मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
अहो अदेही अकल बने हैं, कल-कल भव की आज मिटी,
जन्म-जन्म की सभी तपस्या, सम्भव तेरे आज फली ।
कर्म शत्रु अब भूल कभी आ, धावा बोल न पावेगा।
भव्य तभी तो मोह मिटाने, गीत आपके गावेगा।
दोहा
चैत्र शुक्ल षष्ठी रही, मोक्ष गये भगवान ।
अष्ट गुणों को पा लिया, बनकर सिद्ध महान ।। ५१॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मोक्ष कल्याणक मण्डित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं
निर्वामिति स्वाहा।
१८ दोष से रहित के अर्घ
(छन्द-ज्ञानोदय)
इष्ट मिष्ट सब भोजन कर कर, हार गया घबराया हू,
किन्तु क्षुधा नहिं शान्तहुई सो, शरण आपकी आया हूँ।
भूख विजेता क्षुधा रोग को, जीत बने अरहन्त प्रभो,
सम्भव स्वामी पूजा कर मैं, बन जाऊँ गतबन्ध विभो ॥ ५२ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षुधा दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति
स्वाहा।
प्यास दुःख से व्याकुल होकर, क्या-क्या अब तक पी डाला,
फल में लेकिन दुख ही पाये, जीवन करके हा! काला ।
तृषा रोग को आत्मामृत पी शान्त किया है तृप्त हुए,
त्रिभुवन पूजित सम्भव प्रभु तव पूजा से हम तृप्त हुए॥५३॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं तृषा दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति
स्वाहा।
इहभव परभव आदिक सातों, भय भी हो भयभीत अरे,
भाग गये हैं नहिं लौटेंगे, अहो आप निर्भीक बने ।
सम्भव प्रभु ने देह स्नेह अरु, मूर्च्छा को भी छोड़ दिया,
तब तो हमने अर्घ चढ़ाकर, तुमसे मन को जोड़ लिया ॥ ५४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भय दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति
स्वाहा।
बैरी भी आ आप चरण में, हो जाता प्रणिपात अहो,
गतद्वेषी तव महिमा की हम, क्या कह सकते बात कहो।
द्वेष नहीं सो द्वेष मिटाने, हम तो प्रतिदिन पूजेंगे,
वैरभाव तज अर्चेंगे तो, भव में क्यों हम जूझेंगे॥ ५५० ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं द्वेष दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
पुत्र-पौत्र को परिजन पुरजन, सबको ही जब छोड़ दिया,
राग करेंगे किससे सम्भव, निज से निज को जोड़ लिया।
मैं तो तेरे चरण-कमल का, भौंरे सा बन अनुरागी,
अर्घ चढ़ाकर मैं भी स्वामी, शिव जाऊँ बन गतरागी ॥ ५६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं राग दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
क्षोभ उपजता मोह उदय से, मोह उदय का नाम नहीं,
क्यों आवे फिर क्षोभ किसी पर, मूर्च्छा का कुछ काम नहीं।
सम्भव-सम्भव रटता जाऊँ, सम्भव सम बन जाऊँगा,
अर्ध चढ़ाने पाद-पद्म में, निशदिन क्यों नहिं आऊंगा ॥ ५७॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मोह दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
अभ्यन्तर अरु बाह्य परिग्रह, चेतन तथा अचेतन जो,
छोड़ दिये तो चिन्ता हो फिर किसकी प्रभु तव चेतन को
चिन्तन से भी दूर हुए सो, सम्भव तुम भव त्यागी हो,
इसीलिए मैं अर्घ चढ़ाऊँ, आप चरण अनुरागी हो॥ ५८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चिन्ता दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
नहीं पड़ेगी कभी झुर्रियाँ, जर-जर नहिं हो तन तेरा,
भरी जवानी जैसे वपु में , रहे हमेशा सुख डेरा
जरा दोष के नाशक सम्भव , तेरी पूजन करने से,
बने असम्भव कार्य शीघ्र ही, सम्भव के पद झुकने से ॥५९॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जरा दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
औदारिक इस तन में ही तो, रोग उपजते विविध हहा!,
सम्भव जिन का तन औदारिक, किन्तु न रोग उपजता वा!।
अतः निरोगी आप चरण में, निरोगता पा जाने को,
अष्ट-द्रव्य का थाल चढ़ाऊँ, सिद्ध अवस्था पाने को ॥ ६०॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रोग दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
बाल-बाल या बालमरण को, बाल सुपण्डित-पण्डित को,
नाश आपने प्राप्त किया है, मरण सुपण्डित-पण्डित ओ।
मृत्यु रहित हे मृत्यु विजेता!, अन्तक का भी अन्त करूँ,
इसी भाव से सम्भव तुमको, अर्घ सुअर्पण आज करूँ ॥ ६१ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मरण दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
तव वपुषा से स्वेद कभी भी, नहिं आएगा जीवन में,
इसीलिए तो तव पूजा से मिट जाते भव बन्धन है।
सम्भव तुम ही महाऋषीश्वर, महायमीश्वर सुखमय हो,
महा-मनोहर अर्घ चढ़ाकर सुख पाऊँ मैं शिवमय हो ॥ ६२ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं स्वेद दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
नहिं मिलता है मन का यदि तो, खेद खिन्न हो जाता है,
नहीं बचा है मन तेरे सो, खेद न दिल में आता है।
खेद रहित है सम्भव स्वामी, कोटि-कोटिशः वन्दन है,
अर्घ चढ़ाऊँ पूज्यपाद मैं, जीवन हो मम चन्दन ये ॥ ६३ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं खेद दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
जाति ज्ञान कुल तन के मद को, तुमने मूल मिटाया है,
शेष मदों का नाम मात्र भी, अहो नहीं बच पाया है।
इसीलिए हे सम्भव स्वामी, हमने तुमको पूजा है,
तव सम प्रभुवर तीन लोक में, कोई भी नहिं दूजा है ॥ ६४ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मद दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
रति कषाय का नाश हुआ सो, तब पद में रति जागी है,
सम्भव जिन जी मोक्ष पधारे बन करके बड़भागी है।
अहो आपके समक्ष रति की, दाल नहीं गल पायी है,
सो रति स्वामी ने भी आकर, पूजन शीघ्र रचायी है ॥ ६५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रति दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामति स्वाहा ।
चेतन की अरु जड़ पुद्गल की, पर्यायों को जान रहे,
विस्मय हो फिर किसे देखकर, आत्मामृत का पान करे।
अनन्त गुण के कोष सुसम्भव, तुम सम जग में कौन रहा,
गुण गाने का विचार कर भी, होना पड़ता मौन हहा! ॥ ६६ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विस्मय दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
निद्रा-प्रचला, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला स्त्यान रही,
सबको नाशा सम्भव प्रभु ने, तब पायी थी आत्ममही।
रहे जागते सो स्वामी नहिं नींद कभी भी आएगी,
मनभावन शुभ अर्घ चढ़ाओ शिव ललना मिल जाएगी ॥ ६७ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निद्रा दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा।
गर्भ जन्म से जन्मे फिर भी, परमौदारिक देह हुआ,
सप्त-धातु से रहित बना सो, नहीं जन्म नहिं खेद कहा।
जन्म दोष से रहित सुसम्भव रत्नत्रय से पूर्ण हुए,
जिसने पूजा एक बार भी, पाप कर्म सब चूर्ण हुए॥ ६८ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जन्म दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति
स्वाहा ।
नहीं इष्ट है अनिष्ट कोई , नहीं रहा प्रभु तेरा है,
वियोग हो फिर किसका किसके निज में नित्य बसेरा है।
सम्भव तेरे शोक कर्म का उदय कभी नहिं होवेगा,
अर्ध चढ़ाकर भक्त आपका, मोक्ष बीज को बोवेगा ॥ ६९ ।।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शोक दोष रहित श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं निर्वपामिति स्वाहा ।
धवल ध्यान से योग भाव भी , मृत्युराज की गोद गया,
वही स्थान तब धवलकूट बन, भव्यों के अघ शोख रहा।
श्रावस्ती की शान लोक में, त्रिभुवन पूजित अर्चित है,
अर्ध चढ़ाऊँ अद्यावधि भी, तीन लोक में चर्चित हैं ॥ ७० ॥
ॐ ह्रीं श्री धवल कूटेभ्यो नमः अर्घ्यं….
स्वर्णसन पर हेमासन पर, रजतासन पर सम्भव के,
स्वर्णबिम्ब कलधौत बिम्ब जो, सुखकारी हैं सुखमय हैं।
उन सबके पद रजत थाल में, चित्ताकर्षक द्रव्य सजा,
तुम्हें चढ़ावें प्रभो हमारे हो, जावें अब पाप विदा॥ ७१ ॥
ॐ ह्रीं श्री क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं…….
पूर्णार्घ
(घत्ता)
हे सम्भव जिन जी, तुम ही शिव की, राह दिखाते हम सबको,
सो उस पर चलकर, भव को तजकर, पा जाते हैं शिव सुख को ।
जल अक्षत पावन, ले मनभावन, नैवज अर्घ बनाया है,
तव चरण चढ़ाने, पाप मिटाने, भक्त आपका आया है॥ ७२॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं…….
जाप्य :- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः।
(9/27/108)
जयमाला
(दोहा)
जयमाला से जय मिले, कर्म शत्रु पर शीघ्र ।
इसीलिए गाऊँ प्रभो, कषाय नहिं हो उग्र ॥ १ ॥
(ज्ञानोदय)
धवलकूट पर सम्भव जिन ने, ध्यान सुधवल लगाया था,
अघाति रज को पूर्ण उड़ाकर, धवलिम पद को पाया था।
योग क्रिया को रोक यहीं, गतयोग अवस्था पाई थी,
सिद्धि वधू तब आप गले, वरमाल डालने आई थी॥ २॥
तुमको पा कृतकृत्य हुई वह, छोड़ कभी नहिं जावेगी,
अमित काल तक बनी रहे नहिं, और किसी को चाहेगी।
श्रावस्ती नगरी के गौरव, मात सुषेणा लाल रहे,
माणिक मोती हीरा पन्ना, में नहिं ऐसा लाल अरे॥ ३॥
अहो आपके जन्म मात्र से, भू पर सुख साम्राज्य हुआ,
इसीलिए तो सम्भव स्वामी, सार्थक तेरा नाम हुआ।
कर्मराज के कलंक सारे, मिटा बने अकलंक प्रभो,
मोह मल्ल की सेना पर पा, विजय बने निकलंक विभो ॥४॥
भव के कारण मिथ्यात्वादि, तीनों का दम नाश किया,
सम्यक्त्वादिक रत्नत्रय करे, पूरा कर शिव पास किया।
तीजे तीर्थंकर प्रभु तुमने, तीन लोक को जीत लिया,
त्रिभुवन विजयी मृत्युराज को, क्षण भर में भयभीत किया ॥५॥
देह स्वर्णमय भाव स्वर्णमय, सोने सम ही जीवन है,
इस कारण ही अब नहिं जन्मो, आप पुनः इस भव वन में।
वेदनीय के साथ आयु अरु, नाम गोत्र जो कर्म रहे,
जली जेवड़ी सम कुछ नहिं ये, कर सकते हैं हर्ज अरे ॥ ६ ॥
,
सब कर्मों का परदादा जो, मोह न टाँग अड़ायेगा,
तो कैसे वह कर्म असाता अपना रंग दिखायेगा।
कर्म विनाशक शुक्ल ध्यान को देख कलेजा कांप गया,
धूल मिला सो बोरी बिस्तर, उठा बिचारा भाग गया ॥ ७॥
मोहराज की दशा देखकर, काँपा ज्ञानावरणी भी,
अन्तराय का अनुचर बनकर, दर्शन का आवरणी भी।
मतलब तीनों घाति कर्म भी, मोह कर्म के साथ चले,
लौट न आवे क्योंकि सुनो अब, राग द्वेष के पाँव गले॥ ८॥
फल में केवलज्ञान दिवाकर, झगझग करता प्रगट हुआ,
तीन लोक का अवलोकन भी सम्भव प्रभु के सहज हुआ।
क्षुधा तृषादिक दोष अठारह, झाँक न पावे भूल कभी,
परमौदारिक बनी देह सो, घट-बढ़ होगी नहीं कभी ॥ ९ ॥
सात ऋद्धि रस गारव तजकर, गौरव से परिपूर्ण हुए,
ज्ञानादिक मद जीत आपने, निर्मद हो अघ चूर्ण किये।
मन वच तन के दण्डों को तज, पापों से नहिं दण्डित हो,
इसीलिए तो अदण्डघर से, सम्भव जिन तुम वन्दित हो ॥ १० ॥
तीन अशुभ लेश्या से बचकर, शुभ लेश्या से दूर हुए,
अहो अलेश्यक बनकर ही तो, शाश्वत सुख के पूर हुए।
अहो अलौकिक दीपक तुम हो, अहो अनोखे दीपक हो,
मोहमयी तुम अंधकार के, नाशक अद्भुत दीपक हो ॥ ११॥
तब तो सारे सन्त-साधु भी, नित्य आपके गुण गाते,
तथा आपके पाद-पद्म पा, पाप पंक से बच जाते।
माया जेता मान विजेता, क्रोधानल के दाहक हो,
मन्मथ जेता ! कामदेव के, मद के तुम संहारक हो ॥ १२ ॥
कामधेनु सम होकर के भी, काम वेदना नाश करो,
मदनदेव को जीत लिया सो, शिव ललना को पास करो।
कल्पवृक्ष हो कल्पित देते, तथा अकल्पित भी मिलता,
अचरज है पर आप समागम, चित्त कल्पना को दलता ॥ १३ ॥
आप भक्ति ही कामदुही है, कामदाहिनी, कामजयी,
बनने की पा शक्ति आपसे, भक्त बनेगा मोक्षमयी ।
सोने सी तव काया जिसमें, लाल कमल से ओष्ठ रहे,
छवि देखूं तो लगता तेरे, जैसा रूप न और रहे ॥ १४॥
कृष्ण नाग से काले काले, घूँघर वाले केश रहे,
तीन लोक में तुमसे बढ़कर, सुन्दरता नहिं शेष अरे।
लगता तेरे अंतरंग की, सभी कालिमा बाहर आ
कहती है तुम शुद्ध हुए हो, बुद्ध हुए अविरुद्ध अहा ॥ १५ ॥
नासा को तो मात्र देखकर, आशाएँ सब भाग चली,
निराश होकर बेचारी वे, आप चरण की दास बनी।
सो नहिं उपजे कभी आपके, तीन-काल में आशाएँ,
धन्य-धन्य हो स्वामी मेरी मिट जाएँ सब आशाएँ ॥ १६ ॥
कई बार हे प्रभो आपको, मैंने पूजा अर्चा की,
शीश झुकाकर गुण गाए, तव जीवन की ही चर्चा की।
दर्शन करके गदगद् होकर, वैभव सारा छोड़ दिया,
और तपस्या करके मैंने, तन से नाता तोड़ दिया ॥ १७॥
लेकिन तेरे साथ हाय प्रभु रागी को भी स्थान दिया,
तब तो मुझको अब तक नहिं हा! सिद्ध शिला का वास मिला,
एक म्यान में दो तलवारें, नहीं रही नहिं रह पावे,
यदि रख दे तो दोनों में से, टूट सुनिश्चित इक जावे ॥ १८ ॥
यही रहा है अकाट्य कारण, भव भटकन का मेरे हा!
जन्म-मरण का दुःख-दर्द का, मिथ्यातम के डेरे का ।
मति जागी अब मुझमें सो मैं, उर से सबको अलग करूँ,
और आपकी श्रद्धा कर मैं, मिथ्यातम का वमन करूँ ॥ १९ ॥
अहो आज मैं धन्य हुआ हूँ, वीतराग के दर्श मिले,
वीतराग का मार्ग मिला सो, नयन युगल भी आज खिले ।
हृदय पटल पर केवल तेरी, वीतराग छवि अंकित कर,
तेरी श्रद्धा तेरी अर्चा, करूँ भक्ति बस तेरी अब ॥ २०॥
जब तक शिव की प्राप्ति न होवे, तब तक तेरे पाद युगल,
मेरे उर में रहे विराजित, भक्ति रहे बस आप चरण ।
इसी भाव से पूर्ण करूँ यह, जयमाला तव गुणगण की,
क्षमा करो कुछ गलत हुआ हो विनती है यह मम मन की॥२१॥
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री सम्भवनाथ जिनेन्द्राय नमः जयमाला पूर्णाअर्घ्यं. निर्वपामीति
स्वाहा…
आशीर्वाद
सम्भव प्रभु की भक्ति भाव से, पूजा जो भी रचवावे,
भव भव के सब दुःख नाशकर, निज में ही वह रम जावे ।
अन्तिम भव को पावे भव में, लौट नहीं वह आवेगा,
सिद्धि शुद्ध चैतन्य अवस्था शाश्वत सुख को पावेगा।
इत्याशीर्वादः परिपुष्पांजलिं क्षिपेत। क्षिपामि…..
प्रशस्ति
(दोहा)
चन्द्रप्रभ जिन देव का, मन्दिर पहला श्रेष्ठ ।
सात शिखर इस पर रहे, तेरह वेदी ज्येष्ठ ॥ १॥
दूजा मन्दिर नेमि का, मुख्य रहा जिन बिम्ब ।
तीजा मन्दिर पार्श्व का, सभी धर्म के खम्भ ॥ २ ॥
तीन जिनालय शोभते रानीपुर जो गाँव ।
समाज रही धर्मात्मा, करती धार्मिक काम॥ ३ ॥
और मोक्ष पच्चीस सौ , तीन सहित चालीस
मार्गशीर्ष की चौथ को, प्रभु का ले आशीष ॥ ४ ॥
वार रहा शनि सो बना, अच्छा उत्तम योग।
विधान पूर्ण कर चाहता, मिटे पाप का रोग ॥ ५ ॥
शान्ति सिन्धु गुरु के रहे, शिष्य सु उत्तम वीर ।
शिवसागर उनके रहे, शिष्य प्रतिष्ठित धीर ॥ ६ ॥
ज्ञान सुविद्या की रही, परम्परा जो आज ।
विवेक सिन्धु की पांचवी , शिष्या शुभ के काज ॥ ७॥
सम्भव प्रभु का पूर्ण कर, विधान का यह काम ।
चाहे उसको भी मिले, शाश्वत सुन्दर धाम ॥ ८ ॥
सूर्य चन्द्र तारे रहे , रहे धरा अरु सिन्धु
रहे चमकती पूज ये, जैसे चमके इन्दु ॥ ९॥
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