भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)|Bhaktamber Strotra Hindi

Bhaktamber Strotra

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)

 

भक्तामर स्तोत्र (हिन्दी)

अनुवादक पं. हेमराज 

 

दोहा

आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार । 

धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार ॥

 चौपई (१५ मात्रा)

सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करैं, अंतर पाप-तिमिर सब हरैं ।

 जिनपद बंदों मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ॥१॥ 

श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव ।

 शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल ||२|| 

विबुध-वंद्य-पद मैं मतिहीन, हो निलज्ज थुति मनसा कीन ।

 जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहै, शशि-मंडल बालक ही चहै ॥३॥ 

गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावै पार ।

 प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु. जलधि तिरै को भुज बलवन्तु ||४|| 

सो मैं शक्तिहीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ ।

 ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ||५||

 मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम ।

 ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करे आराव ॥६॥ 

 तुम जस जंपत जन छिनमाँही, जनम जनम के पाप नशाहिं। 

ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत नील निशा-तम-जाल ||७||

तव प्रभावतैं कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार । 

ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफल की घुति विस्तरै ॥८॥

 तुम गुन-महिमा हत- दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष ।

 पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकाशी ज्यों रवि-धाम ॥९॥

 नहिं अचंभ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण वरणत सन्त । 

जो अधीन को आप समान, करै न सो निंदित धनवान ||१०|| 

इकटक जन तुमको अविलोय, अवर-विषै रति करै न सोय । 

को करि क्षीर-जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान ॥११॥

प्रभु तुम वीतराग गुण- लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन ।

 हैं तितने ही ते परमाणु, यातैं तुम सम रूप न आनु ॥१२॥

 कहाँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग- नयन- मनहार ।

 कहाँ चन्द्र मण्डल सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक ||१३|| 

पूरन चन्द्र-ज्योति छविवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत । 

एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार ॥१४॥

 जो सुर-तिय विभ्रम आरम्भ, मन न डिम्यो तुम तो न अचंभ ।

 अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर ||१५|| 

धूमरहित बाती गतनेह, परकाशै त्रिभुवन-घर एह । 

वात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखंड ॥१६॥

 छिपहु न लुपहु राहु की छांहिं, जग परकाशक हो छिनमाँहिं ।

 घन अनवर्त दाह विनिवार, रवि तैं अधिक धरो गुणसार ॥१७॥ 

सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघ राहु अविरोह । 

तुम मुख-कमल अपूरव चन्द, जगत-विकाशी जोति अमंद ॥१८॥

 निश-दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुखचन्द हरै तम घाम ।

 जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तैं कौनहु काज ॥१९॥ 

जो सुबोध सोहै तुम माहि, हरि हर आदिक में सो नाहि । 

जो घुति महा-रतन में होय, काँच-खंड पावै नहिं सोय ॥२०॥

सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया । 

स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ॥

 

                             कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया ।

 मनोग चित्त-चोर और भूल हू न पेखिया || २१|| 

अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं ॥

 न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं

  दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै

 दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ||२२||

पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो । 

कहें मुनीश ! अंधकार-नाश को सुभान हो ।

 महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके ।

 न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके ||२३|| 

अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो । 

असंख्य सर्वव्यापि विष्णु य हो अनादि हो ॥

 महेश ! कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो ।

 अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो || २४|| 

तुही जिनेश! बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं 

तुही जिनेश! शंकरो जगत्त्रये विधानतैं ॥ 

तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतें । 

नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतें ॥२५॥

 नमो करूँ जिनेश ! तोहि आपदा निवार हो ।

 नमो करूँ सुभूरि-भूमि लोक के सिंगार हो ।

 नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो ।

 नमो करूँ महेश ! तोहि मोखपंथ देतु हो |२६||

 

 चौपाई (१५ मात्रा)

तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे । 

और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ||२७|| 

तरु अशोक-तल किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार । 

मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ॥२८॥

 सिंहासन मणि-किरण-विचित्र वापर कंचन-थरन पवित्र ।

 तुम तन शोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार ||२९|| 

कुंद-पुहुप – सित-चमर दुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत । 

ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ॥३०॥

 ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप

तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झारल सों छवि लहैं ॥३१॥

दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर ।

 त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानूँ जय जय रव उच्चरै ||३२||

मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप-सुवृष्ट ।

 देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विज-पंकति अवतार ||३३|| 

तुम तन-भामंडल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द ।

 कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करे अछाय ||३४||

 स्वर्ग-मोख-मारग-संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत ।

 दिव्य वचन तुम खिरें अगाध, सब भाषा गर्भित हित साध ||३५||

दोहा

विकसित- सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं ।

 तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं ॥३६॥

 ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय | 

सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ॥३७॥

 

मद-अवलिप्त- कपोलमूल अलि-कुल झंकारें ।

तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं ॥ 

काल-वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै ।

 ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै ॥ 

देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन ।

 विपति-रहित संपति-सहित वरतैं भक्त अदीन ||३८||

 अति मद-मत्तगयंद कुंभ-थल नखन विदारै ।

 मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ॥

 बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसनालोलै । 

भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै ॥

 ऐसे मृग-पति पग-तलै जो नर आयो होय | 

शरण गये तुम चरण की बाधा करै न सोय ॥ ३९॥

 

प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर ।

बमैं फुलिंग शिखा उतंग पर जलैं निरंतर ॥ 

जगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी मानों ।

 तडतडाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानों ॥

सो इक छिन में उपशमे नाम-नीर तुम लेत ।

होय सरोवर परिनमै विकसित कमल समेत ॥४०॥

कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलन्ता ।

रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता ॥

 फण को ऊंचा करे वेग ही सन्मुख धाया ।

 तब जन होय निशंक देख फणपति को आया ॥ 

जो चांपै निज पगतलें व्यापै विष न लगार । 

नाग- दमनि तुम नाम की है जिनके आधार ॥। ४१॥

 जिस रन-माँहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम । 

घन से गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम ॥

 अति कोलाहल माँहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै। 

राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै।। 

नाथ तिहारे नामतैं अघ छिनमाँहिं पलाय । 

ज्यों दिनकर परकाशतैं अन्धकार विनशाय ॥ ४२॥

मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै ।

 उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ॥

होय तिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे ।

 तिस रन में जिन तोर भक्त जे हैं नर सुरे ॥

 दुर्जय अरिकुल जीत के जय पावैं निकलंक ।

 तुम पद पंकज मन बसैं ते नर सदा निशंक ||४३||

नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै ।

जामैं बड़वा अग्नि दाहतैं नीर जलावै ॥

पार न पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी ।

गरजै अतिगंभीर, लहर की गिनति न ताकी ॥

सुख सों तिरैं समुद्र को, जे तुम गुन सुमराहिं ।

 लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहिं ॥४४॥ 

महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं।

 वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं ॥

सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा । 

अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गंध निवासा ॥

 तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग ।

 ते नीरोग शरीर लहि, छिन में होय अनंग ||४५ ||

 पांव कंठतें जकर बांध, सांकल अति भारी । 

गाढ़ी बेड़ी पैर माँहि जिन जांघ बिदारी ॥ 

भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने । 

सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने ॥

 तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं ।

छिन में ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं ॥ ४६||

 महामत्त गजराज और मृगराज दवानल । 

फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल ॥

 बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै । 

तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै ॥ 

इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय । 

यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय ॥४७॥ 

यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी ।

 विविध वर्णमय पुहुप गूंथ मैं भक्ति विधारी ॥

 जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावैं । ‘

मानतुंग’ ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पायें ॥ 

भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत ।

 जे नर पढ़ें सुभाव सों, ते पावैं शिवखेत ॥४८॥

 

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समाधि भावना

 

सुप्रभात – स्तोत्रम्

 

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