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श्री पद्मप्रभ विधान — रचयित्री आर्यिका विज्ञानमती

श्री पद्मप्रभ विधान

 

 

रचयित्री आर्यिका विज्ञानमती

प्रकाशक

धर्मोदय साहित्य प्रकाशन

सागर (म०प्र०)

Mahaveervaani

श्री पद्मप्रभ विधान पीठिका

(दोहा)

पद्मप्रभ की अर्चना, करने शुभ-आरंभ।

कहूँ पीठिका पूर्व में, तजकर पापारम्भ ॥१॥

(ज्ञानोदय)

नगर सुसीमा धन-धान्यों से, जैसे था परिपूर्ण अरे,

वैसे ही था अधिपति उसका,श्रेष्ठ कार्य को पूर्ण करे।

 नहीं पराजित हुआ तभी तो नाम रहा, अपराजित था,

जिनेन्द्र पूजा गुरु की सेवा, कर पद पाया अरिजित था ॥२॥

 

दान दिया था इतना जिससे, नहीं दरिद्री शेष रहा,

 नहीं दुखी था कोई भी सो, भाग्यवान वह देश कहा।

इक दिन भव भोगों का उसके, विचार मन में जब आया

पिहितास्रव जिनवर के पद में, दीक्षा लेकर सुख पाया ॥३॥

 

फिर भायी थी सोलह कारण, भावन पावन मुनि बनकर,

तीर्थंकर शुभ कर्म बाँधकर, सुर पाया था सब सुखकर।

अन्त समय में स्वर्ग छोड़ जब, भूमि पधारे आप तदा,

छह महिने पहले से रत्नों को बरसाया खूब यहाँ ॥४॥

 

पौन वर्ष तक गर्भ विराजे, तब भी सुरमय जलधर ने,

हीरा-पन्ना माणिक मोती, से भर दी थी भूमि अरे ।

 जन्म हुआ तब श्वभ्रभूमि भी, क्षणभर को वा शुभ्र हुई,

नरक निवासी जीवों ने भी, श्वाँस ग्रहण की सौख्यमयी ॥५॥

 

यौवन बीता तब तो इक दिन, बँधा देखकर गजवर को,

पूर्व भवों का ज्ञान हुआ वैराग्य हुआ सो जिनवर को ।

दीक्षा लेकर केवल पा फिर, समवसरण में शोभित हो,

दिव्य देशना देकर सबके मन को करके मोहित औ ॥६॥

 

गाँव-गाँव में नगर-नगर में, भव्यों को उपदेश दिया,

 बारह कोठों में बैठे सब, जीवों को संदेश दिया।

 तुम भी जल्दी वृष धारणकर मुक्ति रमा का वरण करो,

उसको पाने भूल कभी नहिं, पर द्रव्यों को ग्रहण करो ॥७॥

 

यही देशना सुन करके तो, भव्य जीव कृतकाज हुए,

 तेरा ही पथ अपनाया था, जिससे शिव का राज्य मिले।

 अहो आपका गमन देशना, चलना आदिक सहज हुए,

 नहिं इच्छा नहिं फल की वांछा, नहीं कर्म के करण हुए ॥८ ॥

 

फिर सम्मेदाचल पर जाकर, योग क्रिया को तज करके,

 शिव पाया था सुख पाया था, निज में निज को भज करके ।

ऐसे श्रीमद् पद्मप्रभ के विधान की शुरूआत करूँ,

और पूर्ण कर तव प्रसाद से, मोक्ष महल को पास करूँ ॥९॥

“इति मण्डलस्योपरिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्/क्षिपामि”

 

श्री पद्मप्रभ विधान

पूजन प्रारम्भ

स्थापना

(ज्ञानोदय)

खिले कमल सम खिला हुआ ही पद्मप्रभ का आनन है,

चिह्न पद्म है वर्ण पद्म सा, सच्चे ये चतुरानन हैं।

महामनोहर कूट सुमोहन, आप योग से श्रेष्ठ बना,

ऐसे पद्मप्रभ स्वामी तुम, तीन लोक में ज्येष्ठ महा॥

(दोहा)

छटवें प्रभु श्री पद्म का, आह्वानन है आज।

सन्निधि स्थापन मैं करूँ, पूजा करने आज॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वानम्

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधिकरणम्।

अष्टक

जल लेकर के स्वर्ण कलश में धारा देने आया हूँ,

 जन्म-मरण की परम्परा को आज मिटाने आया हूँ।

 पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

 सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं…।

चंदन शीतल रहा सुगन्धित फिर भी ताप न मेट सका,

ताप मिटाने दुर्लभता से आज आपसे भेंट सका।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा।

ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः संसारतापविनाशनाय चंदनं …।

मोती सम ये छाँट-छाँटकर सुन्दर अक्षत लाया हूँ,

कर्म मेघ’ छट जावे अक्षय पद पाने को आया हूँ।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा।

ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् …।

पुष्प चढ़ाकर चाहूँ स्वामी, विषय वासना मिट जावे,

फलतः चेला अन्तिम क्षण तक, आप नाम बस रट पावे।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

 सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा।।

ॐह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं … ।

शुद्ध सुप्रासुक नैवेद्यों की, थाली भरकर ले आया,

क्योंकि आपकी भक्ति बिना भी, क्षुया रोग क्या मिट पाया।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं … ।

मणिमय दीपक से भी कोई, मतलब कुछ नहिं सिद्ध हुआ,

तुम्हें चढ़ाया सो स्वामी मम, ज्ञान दीप समृद्ध हुआ।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः मोहान्धकारविनाशनाय दीप…।

धूप दशांगी चढ़ा आपको, सोचा मन में अभी-अभी

 तव पूजा के बिना किसी को, मिल न सकेगा मोक्ष कभी।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा ॥

ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः अष्टकर्मदहनाय धूपं ।

नारिकेल बादाम सुपारी चिलगुंजा अरु ऐला ले,

 दौड़ा आया आप नाम सुन, पूजा करने चेला ये।

 पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

 सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिथ्यातम को तज दूँगा।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः मोक्षफलप्राप्तये फलं …।

जल चन्दन अखरोट दीप अरु धूप सुअक्षत मिला लिये,

अर्घ बनाकर पूजा की सो, अघमल मेरे आज मिटे।

पद्मप्रभ को मुदित पद्म सम चित्त लगाकर पूजूँगा,

 सम्यक् पाने हे स्वामी अब, मिध्यातम को तज दूँगा।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभजिनेन्द्राय नमः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं…।

 

प्रत्येक- अर्घ

 (दोहा)

गुण कितने हैं आपमें कह सकता है कौन।

 फिर भी कैसे हे प्रभो, रख पाऊँ मैं मौन ॥

 इति मण्डलस्योपरि पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि/क्षिपेत्

 

जन्मातिशय के १० अर्घ

(लय-शांतिनाथ मुख शशिउनहारी…….)

स्वेद उसी को आवे भारी, पापी की हो यदि तन क्यारी ।

तुम सम कोई पुण्यवान ना,पद्मप्रभ सा सुन्दर तन ना ॥१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं  निःस्वेदत्व जन्मातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….

पद्म सरीखा निर्मल तन है, पद्मप्रभ का निर्मल मन है।

निर्मल मन-वच-तन से स्वामी, अर्ध चढ़ाऊँ जग अभिरामी ॥२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निर्मलत्व जन्मातिशय गुण धारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं |

दया स्त्रोत जब हृदय बहा था, सबके हित का भाव बना था।

तब तो रक्त बना था गौरा, सो पद में मैं आया दौड़ा ॥३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षीरगौररुधिरत्व जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं…. 

अतुलनीय वह रूप रहा है,जग में ऐसा रूप कहाँ है।

पद्मप्रभ को नहिं मतलब है,पूज बचूँ मैं अब गफलत से ॥४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौरुप्य जन्मातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …!

गन्ध देह की अद्भुत अनुपम,नहिं कह सकता कोई निरुपम ।

सुगन्ध देही विदेह बनने,आये हम सब अघ से बचने ॥५॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौगन्ध्य जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ।

 तेरे सुन्दर लक्षण से ही, सामुद्रिक सब शास्त्र रहे जी।

 शुभ चिह्नों से चिह्नित तनधर,पूजूँ अर्घ चढ़ाकर मनभर ॥६॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सौलक्षण्य जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ।

पद्म शक्ति का नहीं पार है, उसका ही तो लिया सार है।

तब तो सबका हित ही करते,अर्घ चढ़ाऊँ भव को हरने ॥७॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वज्रवृषभनाराचसंहनन जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य …।

रहा अलौकिक रूप अनोखा, भव तिरने को तुम ही नौका।

पद्मआपका नाम रटेगा,पंकज सम वह खिला रहेगा ॥८ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं समचतुरस्त्रसंस्थान जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

नहीं वीर्य का माप रहा है, धन्य आपका नाम कहा है।

पद्मप्रभ को भजले भजले, पाप कर्म को दल दे दल दे ॥९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अप्रमितवीर्य जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

इष्ट-मिष्ट अरु शिष्ट बोलते,सबके मन में सुधा घोलते।

धरणराज के पुत्र पद्म को,अर्घ चढ़ावें मोक्ष सद्म हो ॥१०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं प्रियहितवादित्व जन्मातिशयगुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य …. ।

 

केवलज्ञान के १० अतिशय

(छन्द-नरेन्द्र)

एक शतक योजन तक ओ हो, ईति-भीति का नाम हटे,

अनावृष्टि नहिं अधिक वृष्टि हो, नहीं पाप संताप बचे।

सुभिक्षता हो वहाँ जहाँ पर, पद्मप्रभ जी गमन करें,

सब आकर के पूजा करके, अपना जीवन चमन करे ॥११॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं  गव्यूतिशत चतुष्टय सुभिक्षत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक

श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

गगनांगन में पद्मप्रभ जब, बिहार करते अधर तदा,

लगता मानों पद्मरागमणि, पर्वत नभ में विहर रहा।

चार घातिया नष्ट हुए सो, अतिशय तुमको सहज मिला,

अर्घ चढ़ाकर दर्श किये तो, चेतन मेरा आज खिला ॥१२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गगनगमनत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

खाद्य स्वाद्य अरु लेह्य पेय अब नहिं आवश्यक लगते हैं,

 बिना भुक्ति के भी हे स्वामी खुले खिले ही दिखते हैं।

पद्मप्रभ तव पाद-पद्म का भ्रमर बना रस पीकर के,

तुष्ट हुआ संतुष्ट हुआ सो, शीघ्र बनूँगा धीवर मैं ॥१३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भुक्त्यभाव घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

किसी जीव को अहो आपसे, बाधा किंचित् नहिं होती,

 देह बना है परमौदारिक, जिससे फीकी सुर ज्योति ।

 प्रकट हुई यह शक्ति आपके, घाति कर्म के जाने से,

पद्मप्रभ सो भाव हुए मम, चरणों अर्घ चढ़ाने के ॥१४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अप्राणिवधत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

अब तो कोई बैरी भी नहिं, कर पावे उपसर्ग कभी,.

 बैर छोड़कर मित्र बने वे, शरण रहेंगे शीघ्र सभी।

कौशाम्बीमय उदयाचल के, सूरज तेरी जय-जय हो,

 अर्घ चढ़ाऊँ पद्मप्रभ तव, दर्शन मुझको भव-भव हो ॥ १५ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं उपसर्गाभाव घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

जन्मजात या कुल की होवें अथवा कोई सिद्ध हुई,

 सब विद्याएँ बिना परिश्रम, तुममें आकर वृद्ध हुई ।

 हे विद्येश्वर! विद्याधर भी विद्येश्वर बन जाने को,

, अर्घ चढ़ाते पद्म आपको, फिर से भव नहिं पाने को ॥१६॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वविद्येश्वरत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

समवसरण में चारों दिशि में, मुख दिख करके कहते हैं,

भव्य-जनों के चारों गति के, दुख को ये प्रभु दलते हैं।

चिराग तुम इक्ष्वाकु वंश के, महिमा गाऊँ रात-दिवस,

पूजूँ मुक्ति गमन का स्वामी, कब आवे वह पुण्य दिवस ॥१७॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुर्मुखत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

छाया तेरी इस धरती पर, कभी न पड़ती है स्वामी,

उसका कारण अन्तिम प्रज्ञा, पायी तुमने शिवगामी ।

इन्द्रनीलमणि का जो सुर ने, समवसरण रच दिखलाया,

तीर्थंकर पद का वैभव सो, पूजा करके सुख पाया ॥१८॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अच्छायत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

नील कमल से नयन आपके, झुके नहीं नहिं झपक रहे,

नहीं देखने की इच्छा नहिं, किसी वस्तु पर अटक रहे।

पद्म आपका लालकमल यह, चिह्न बताता खिले खिले,

भक्त आपका अर्घ चढ़ाये, सारी निधियाँ उसे मिले ॥१९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अपक्ष्मस्पंदत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …. ।

घुँघराले इन केशों की अरु नख की नहिं हो वृद्धि कभी,

जो भी पूजे उसके होगी, सौख्य शान्ति की वृद्धि सही।

पद्मप्रभ तव लालवर्ण पर बाल भ्रमर सम काले हैं,

अर्घ चढ़ावे उन पद में जो, भक्तों के रखवाले हैं ॥२०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं समाननखकेशत्व घातिक्षयजातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 

देवकृत अतिशय के १४ अर्घ

(दोहा)

वाणी तेरी मागधी, यह भी अतिशय देव ।

 तुमने पाया सो प्रभो, करते त्रिभुवन सेव ॥

धरणीधर श्री धरण के, आप रहे हैं पूत ।

पद्म आपका भक्त भी, बन जावे गुणपूत ॥२१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वार्धमागधीभाषा देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

रही मित्रता सर्व में, तो किससे हो बैर ।

तव पूजा से शीघ्र हो, जावे अघ की खेर।।

नाम सुसीमा मात जो, गुण में सीमातीत ।

पद्म उसी के लाड़ले, दुनियाँ गावे गीत ॥२२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजन मैत्रीभाव देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

सब ऋतुएँ इक साथ ही, आयी मानो आज ।

पूजा कर मुझको लगा, पाया हो शिवराज ॥

कौशाम्बी के सूर्य हो, कौशाम्बी के भूप ।

परम हितैषी आप सो, सभी रहे अनुरूप ॥२३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वर्तुफलादि शोभिततरुपरिणाम देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

दर्पण सी निर्दोष हो, भूमि वहाँ की शीघ्र ।

समवसरण आवे जहाँ, पाप न होंगे तीव्र ॥

बाड़ा नगरी में रहे, पद्मप्रभ भगवान ।

अभिमानी भी दर्श से, बन जाता गतमान ॥२४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं आदर्शतलप्रतिमारत्नमयी देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

पवन चले अनुकूल ही, तो क्यों हो प्रतिकूल ।

कोई भी इस भूमि पर सो न चुभे अघशूल ॥

पद्मप्रभ तव दर्श से, स्वर्णिम हुआ प्रभात ।

अनाथ भी तव पूज से, होंगे शीघ्र सनाथ ॥२५॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विहरणमनुगतवायुत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

आनन्दित हो जीव सब, तज देते हैं पाप ।

सनिधि पा प्रभु पद्य की, सुख पाते निर्माण ॥

मंगलपुर अधिराज ने तुमको दे आहार ।

मंगलमय जीवन बना, किया पाप संहार ॥ २६ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सर्वजन परमानंदत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

कंकर-कण्टक धूल को, दूर करें सुरवृन्द ।

पद्म आपकी भक्ति में, नाचें हम तजद्वन्द्व ॥

मोह मेटकर पद्म जब, पहुँचे मोहनकूट ।

बचे कर्म भी आपके, गये यहीं पर टूट ॥२७॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वायुकुमारोपशमित धूलि कण्टकादि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य …।

अहो सुगन्धित पयस की, रिमझिम रिमझिम वृष्टि ।

मेघ जाति के देव कर, बदलें जीवन सृष्टि ॥

पद्मप्रभ की भक्ति से, खिले पद्म सम भव्य ।

निवास लक्ष्मी का बने, फिर पावे शिव रम्य ॥२८॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मेघकुमारकृत गंधोदकवृष्टि देवोपनीतातिशय गुणधारकश्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

पाद युगल रखते जहाँ, पद्मप्रभ जिनराज ।

स्वर्णकमल रख स्वर्ण सा, रचते जीवन खास ।।

पद्म-पद्म रटता रहे, रात दिवस तव नाम ।

सब कार्यों में सफल हो, बन जावे गतमान ॥२९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं पादन्यासेकृत पद्मानि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं…।

फल पुष्पों से पत्र से,बढ़ता है तरु भार।

सो झुककर मानो तुम्हें,नमन करें सौ बार ॥

देख पद्मप्रभ आपको,नाच उठे मन मोर।

चाहे नहिं फिर देखना, और किसी की ओर ॥३०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं फलभारनम्रशालि देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

नभ हो जाता साफ है, जब आवे जिनपाल ।

पद्म दर्श से भव्य के, काम बने तत्काल॥

निरी छटा तव देह की, छठे छटे भगवान।

पद्मप्रभ का भक्त तो, बन जावे सुखवान ॥३१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शरत्कालवन्निर्मल गगनत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

आओ आओ भव्य तुम, सुर करते आह्वान।

पद्म पधारे भक्ति कर, बनो धर्म की शान ॥

आप चरण को पूजकर, शीश चढ़ावे धूल ।

पद्मप्रभ वह शीघ्र ही, पावे भव का कूल ॥३२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं एतैतैतिचतुर्निकायामर परस्पराह्नान देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

शरदकाल में ज्यों दिखे, सभी दिशाएँ साफ ।

पद्म भ्रमर के त्यों सुनो, सुख हो अपने आप ॥

पद्म आपकी भक्तिमय कर में ले जो ढाल ।

पाप वार नहिं कर सके, मार न पावे काल ॥३३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शरन्मेघवन्निर्मल दिग्विभागत्व देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं… ।

जहाँ-जहाँ पर पद्म का, होता श्रेष्ठ बिहार ।

धर्मचक्र आगे चले, सुख की हो भरमार।

रक्त वर्ण है पद्म का, पादयुगल भी लाल ।

प्रतिपल पूजूँ चाव से, मात सुसीमा लाल ॥३४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं धर्मचक्रचतुष्टय देवोपनीतातिशय गुणधारक श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 

अष्ट प्रातिहार्य के ८ अर्घ

(लय-कहाँ गये चक्री….)

पद्मदर्श जो पूजा का शुभ, शौक बढ़ाता है,

तथा पाप को कषाय रिपु को, भू लुढ़काता है।

अशोक तरु यह आप समागम, पाकर फलित हुआ,

पूजा की सो पाप सत्व अब, सारा दलित हुआ ॥३५॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अशोकवृक्ष प्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 पुष्प बरसते जिनकी खुशबू, दिशा-दिशा में जा,

कहती जल्दी इनकी पूजा, करले तू भी आ।

हो जावेगा नौनिहाल फिर कुछ नहिं चाहेगा,

पद्मप्रभ के चरण छोड़कर, कहीं न जावेगा ||३६||

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सुरपुष्पवृष्टि प्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं …।

दिविजों द्वारा चौंसठ चामर, निशदिन दुरते हैं,

पद्म आपके ऊपर सो हम, पूजन करते हैं।

आप भक्त को मतलब केवल, वीतराग से है,

राग विनाशक वीतराग मम, राग आप में है ||३७||

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं चतुषष्ठीचामर प्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

भामण्डल की छवि से लाखों, सूरज लज्जाते,

आप शरण में आना ही, तब मानें अच्छा वे। 

सच में पद्मप्रभो आप सा, नहीं हितंकर है,

तीन लोक में कोई सो हम, पूजें जय करके ॥३८॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भामण्डल प्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

तुरही ढोल नगाड़े वीणा, आदिक बजते हैं, 

पद्मप्रभ की यशस्कीर्ति को, विस्तृत करते हैं।

अहो आहो हे भव्यों आकर इनके चरण पढ़े,

पूजा करके इनके पथ पर तुम भी आज बढ़ो ॥३९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सुरदुन्दुभि प्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

पंखा विजना हवामहल को, तुमने छोड़ा सो

छत्रत्रय ने आकर तुमसे, नाता जोड़ा औ।

पद्म आपकी छाँव मिली तो, क्यों संतापित हो,

मेरा तन-मन आप चरण में, नित्य समर्पित हो ॥४०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं छत्रत्रयप्रतिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

वचन गुप्ति को मौन नियम को, तुमने पाला सो,

फल में दिव्य ध्वनि को पाकर, धर्म बताया औ

ऐसी ध्वनि प्रभु पद्म समा, तीर्थंकर पाते हैं,

इसीलिए अहमिन्द्र इन्द्र भी, अर्घ चढ़ाते हैं ॥४१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं दिव्यध्वनिप्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

सिंहासन यह अहो मेरुगिरि, से भी ऊँचा है,

कारण प्रभुवर मात्र आपका, शासन सच्चा है।

यह बतलाने कुबेर ने आ, खुश हो रचना की,

अर्चा करके भव से अब तो, मुझको बचना जी ॥ ४२ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सिंहासनप्रातिहार्यमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …। 

 

अनंत चतुष्टय के ४ अर्घ

      (लय-मुनि सकलव्रती बड़भागी…)

 

जब घाति कर्म को चूरा, तब ज्ञान हुआ था पूरा।

वह पद्म आपने पाया, सो हमने अर्ध चढ़ाया ॥४३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंतज्ञानगुणमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …

यह दर्श मिला जो तुमको, वो मिल जावे अब हमको।

ये दर्शन गुणगण धारी, श्री पद्म रहे सुखकारी ॥४४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंतदर्शनगुणमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….

 नहिं मोह कर्म बच पाया, सो अमित सौख्य बिलसाया।

यह नष्ट न हो अब तेरे, मैं पूजूँगा आ डेरे ॥४५॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंतसुखगुणमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

 जो अन्तराय दुखदायी, तुम जीत हुए शिवरायी।

मैं पद्मपाद को पूजूँ, तो भव में अब क्यों जूझँ ॥४६॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अनंतवीर्यगुणमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …। 

 

 पंचकल्याणक के ५ अर्घ 

(घत्ता)

वह माघ माह की, गर्भकाल की, छटवीं तिथि जो काली थी, 

जो पद्म योग से, रहित शोक से, बनी भव्य रखवाली थी।

तुम गर्भ सु आये मन हरषाये, पिता धरण अरु जननी के,

तब किया सुरों ने गृह नगरों में, उत्सव भारी धरती पे ॥४७॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं गर्भकल्याणकमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

 

जब जन्म सुपाया, शचिपति आया,भक्ति भाव से आप चरण,

तब गज पर बैठा, झट से ले जा, न्हवन किया था मेरु शिखर ।

वह शुक्ला तेरस, नमते हैं सब, कार्तिक का शुभ माह रहा,

हम तव गुण गाकर, अर्ध चढ़ाकर, पा जावे शिव राज्य अहा।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जन्मकल्याणकमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं … ।

 

जब विरत भाव में, बड़े चाव से, लीन हुए थे जिनस्वामी,

तब लौकान्तिक आ आप चरण पा, करे प्रशंसा शिवगामी। 

औ कार्तिक शुक्ला, मन में हरषा त्रयोदशी को दीक्षा ली,

भव दुख से बचने, निज में रमने, मोक्षमार्ग की शिक्षा दी ॥४९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं तपः कल्याणकमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं… ।

तब केवलज्ञानी, निज के ध्यानी, बने घातिया नाश हुए,

पा अर्हत् पद को, आतम रत हो, मोक्ष सदन के पास हुए।

वह चैत्र माह का, दिवस खास था, जिसमें बन्धन विलय हुए,

हम अर्घ चढ़ाकर, भाव बढ़ाकर, आज पुण्य के निलय हुए ॥५०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं ज्ञानकल्याणकमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….

शिव ललना आयी, अति हरषायी, तुमको पाकर धन्य हुई,

फिर क्यों छोड़ेगी, मन मोड़ेगी, तुमसे ओहो रम्य हुई। 

तब कृष्णा फाल्गुन, पा करके गुण, चौदस उजली कर डाली, 

श्री पद्मप्रभ ने, शिव को वर के, फैला दी थी खुशहाली ॥५१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निर्वाणकल्याणकमण्डित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….

 

१८ दोष से रहित के १८ अर्घ

                                                                      (लय श्री वीर महाअतिवीर…)

 

यह क्षुधा रोग दुःख रूप, उसको चूर्ण किया, 

अति दुष्कर जो यह कार्य, तुमने पूर्ण किया।

 हे पद्म आपका आपका नाम, आठों याम रहूँ, 

मैं तजकर सारे काम, पूजन आज करूँ ॥५२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं क्षुधा दोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….

 

जो प्यास करे बेहोश, तुमने नाश किया,

 सो दर्शन करके पद्म, हर्षित आज जिया ।

 हे तृषा विजेता देव, तेरी अर्चा से,

 मम मिट जावे अब, शीघ्र भव की चर्चा ये ॥५३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं तृषादोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 

 नहिं आप रहे हैं भीरु, भय का नाम नहीं,

 है कारण भय की देव, तुमसे हार कही। 

हे पद्म भयों से मुक्त, तुम ही त्राता हो,

 प्रभु पद्म हमारे आप, भाग्य विधाता हो ॥५४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं भयदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 क्यों द्वेषी होगा पद्म, तुममें वत्सल है,

 सो मित्र बने त्रय लोक, तेरे दर्शन से ।

 जो दोष रहा है द्वेष, रास्ता नाप गया,

औ पूजा जिसने आज, उत्तम काम किया ॥५५॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं द्वेषदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

जब मन में आता राग, व्याकुल होता मैं,

पा संगति तेरी पद्म, रति को खोता मैं। 

तुम धरण भूप के पुत्र, नयन सितारे हो,

तव पूजन करके भव्य, सबसे न्यारे हो ॥५६॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रागदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

जो अहंकार ममकार, उसको मोह कहा,

औ तुमने द्वय को नाश, पाया मोक्ष अहा। 

यह सिंहासन छविदार, अधर विराजित हो, 

हम अर्ध चढ़ाकर पद्म, शिव में राजित हो ॥५७॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअर्हं मोहदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

 

तब चिंतित होता जीव पर से स्नेह जगे, 

तुम पर द्रव्यों से दूर, किसकी फिक्र लगे । 

मैं वंदन करके पद्म, तेरा स्मरण करूँ,

तब पूजा करके शीघ्र, अन्तिम मरण करूँ ५८

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअर्हं चिंतादोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …. | 

तन होता नहिं तव जीर्ण, यौवन नित्य रहे, 

है कारण उसका कर्म, घाति न पास कहे। 

जो इक्ष्वाकु भुत वंश, उसके दीपक हो,

 हो कृपा आपकी पद्य, जीवन हित-मित हो ॥५९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअर्हं जरादोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …।

यह देह रोग का पिण्ड, तो भी स्वस्थ हुए, 

सो अहो निरोगी पय, तुम माध्यस्थ हुए।

 मम सभी तरह के रोग, स्वामी मिट जाव,

 मैं पूजू अब तो आत्म-वैभव मिल जाये ॥६०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐंअर्हं रोगदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …। 

इस तन को बारम्बार, पाकर छोड़ दिया, 

पर बना न मैं गतदेह, सो फिर मरण किया।

 प्रभु पद्म गये शिवलोक, अब नहिं जन्मेंगे,

 हम नाच-नाच वसुयाम, उनको अचेंगे ॥६९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मरणदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …। 

जो मल की क्यारी देह, स्वेद सुझरता है, 

तव तन है निर्मल देव, दुख को हरता है।

 सुर किन्नर आकर नित्य, महिमा गाते हैं,

 हम पूजा करके पद्म, गरिमा पाते हैं ॥६२॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं स्वेददोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं …। 

 

जब बढ़ता मन में खेद, दुःख बढ़ाता है,

 तब पूजन का यह भाव, पाप मिटाता है।

 श्री पद्म रहे निर्वेद, मोक्ष प्रणेता हैं।

 मैं और कहूँ क्या अष्ट, कर्म विजेता है ॥६३॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं खेददोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमःअर्घ्यं …। 

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 औ आठों मद को जीत, निर्मद आप हुए,

 हे निर्दोषी जिनराज, रिपुदल साफ हुए।

 मैं मद तज करके आज, पूजा करता हूँ,

 अब नहिं आवे उन्माद, पद में झुकता हूँ ॥६४॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं मददोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्य …

 

 रति हारी तुमसे पद्म लौट न आवेगी,

 सो चेतनता तज स्नेह, शिव में जावेगी।

 हे अभयंकर जिनदेव, तेरी पूजन से, 

 मम रति न बचे अवशेष, तव गुण कूजन  से ॥६५॥

 ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं रतिदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …

 है जान लिए त्रय लोक, कुछ नहिं शेष रहा,

 सो चकित न होते पद्म, विस्मय दोष गया। 

मैं हुआ अचम्भित देख, तेरी सुन्दरता,

 हे पद्म तभी तो आज पूजा मंदिर आ ॥ ६६ ॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं विस्मयदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …1

 सब भूले भोला जीव, निद्रा जब आती, 

तुम ओहो निद्रातीत, निधियाँ पद आती।

 मैं सबकी संगति छोड़, तव पद आया हूँ,

 हा ! जाना नहिं वृष सत्य, सो भरमाया हूँ ॥६७॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं निद्रादोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …

 

नव देह धारना हाय भ्रमण बढ़ाता है,

 है स्मरण आपका मात्र जन्म मिटाता है।

 ये पद्म जन्म से दूर, भ्रमित न हो पावे,

 सो श्रीफल के ले थाल, सेवक पद आवे ॥६८॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं जन्मदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं…I

 रे शोक शत्रु के दाँत खट्टे कर डाले,

 जो जग जीवों को हाय, देता दु:ख काले।

 तव पद्मरागमय देह, सबको भाता है,

सो पद्म आपका भक्त, अर्घ चढ़ाता है ॥ ६९ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं शोकदोषरहित श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं …

(ज्ञानोदय)

मोह कर्म का नाश हुआ सो, दिव्य देशना दे करके,

भव्यों का कल्याण किया फिर, कूट सुमोहन जा करके।

शेष अघाती कर्म मिटाकर, सिद्धालय में पहुँच गये, 

उसी कूट को अर्घ चढ़ा हम, सार्थक जीवन आज करें ॥७०॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं सम्मेदशिखरस्थित मोहनकूटभ्यो नमः अर्घ्यं …

द्वीप अढ़ाई मध्यलोक में, जहाँ-जहाँ जिन प्रतिमा है,

कुमकुम वर्णी पद्मप्रभ की, निरुपम अद्भुत प्रतिभा है। 

मन वच तन से उन सबको मैं नमन करूँ शत बार अभी,

मेरे उर में और किसी की, श्रद्धा होगी नहीं कभी ॥७१॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….।

पूर्णार्घ 

तव चिह्न कमल है, भाव अमल है, रत्नत्रय को पूर्ण किया, 

जो कूट सुमोहन, हे जग सोहन, वहीं कर्म को चूर्ण किया।

हे पद्म जिनन्दा, सुख के कन्दा, मुझको भव से पार करो, 

मैं अर्ध चढ़ाऊँ, शीश नमाऊँ, मेरे अघ का भार हरी ।। ७२ ।।

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः अर्घ्यं ….।

जाप्य मंत्र- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः  ॥

(9/27/108)

 जयमाला

(दोहा)

रही मनोहर माल ये, जयमाला गुणरूप ।

गाऊँ प्रभु श्री पद्म की, बनने मैं शिवभूप ॥१॥

(ज्ञानोदय)

अहो अधीश्वर तुमने क्षण में, पाप पंक को धो डाला,

सो कैसे क्या कर पावे, उपसर्ग आप पर हा! काला ।

स्फटिक रत्न सम विशुद्ध तन में, सप्त-धातु का नाम नहीं,

 इसीलिए तो नख केशों की, वृद्धि रुकी है आज सही ॥२॥

ध्यानमयी ले कुठार तुमने, घातिकर्म मय तरुवर को,

काट दिया सो अनन्तजित् यह नाम हुआ है जिनवर ओ

नहीं बुढ़ापा नहीं जन्म है, नहीं मृत्यु अब आयेगी,

इसीलिए तो मुक्ति रमा भी, तेरे ही गुण गायेगी ॥३॥ 

मल से वर्जित तन है चेतन, राग-द्वेष से रहित हुआ,

अमल कहाते निर्मल तब तो, द्रव्य-भाव मल व्यथित हुआ।

बिना किसी की सहायता के, मोक्षमार्ग को अपनाया,

अहो स्वयंभू स्वयंबुद्ध बन, ज्ञान ज्योति पा शिव पाया ॥४॥

पद्मराग सम वर्ण आपका, लेकिन आँखें लाल नहीं,

कहे क्रोध को नाश किया सो पूज्य बनी तव चाल सही।

तुमने सो ही पूज्य हुए तुम, क्षमावन्त मुनिराजों से, 

क्षमाशील से क्षमाझील से, क्षमासिन्धु ऋषिराजों से ॥५॥

 

पद्म रहा जो लौकिक उस पर, लौकिक लक्ष्मी रहती है,

 वह है नश्वर क्षणभंगुर है, आत्मिक सुख को हरती है।

 किन्तु पद्म तुम रहे अलौकिक, तभी अलौकिक लौकिक भी, 

लक्ष्मी आकर चरण बसी पर, प्रेम न उससे किंचित् जी ॥६॥

 किला दुर्ग को छोड़ महल को, सघन वनों में तप धारा, 

सो पाया यह समवसरण जो, शरण रहा है सुखकारा।

 आज्ञा देना छोड़ अहो तुम, स्वतंत्र अविचल एकाकी,

 कानन में जा बसे तभी तो, आज्ञा सबने ही मानी ॥७॥

 उद्यानों का वृक्ष छाँव का, छाते आदिक सबका ही,

 त्याग किया सो तीन छत्रमय, वैभव है यह इनका जी।

 आसन छोड़े सो सिंहासन, प्रातिहार्यमय आज मिला,

 पद्मप्रभ तव वैभव देखा तो शिवपथ का राज’ मिला ॥८॥ 

अतिशयकारी बाड़ा नगरी, उसका जो इतिहास रहा,

 उसको सुनलो जहाँ दर्श से बनते सारे काम अहा ।

 एक व्यक्ति ने इक दिन आकर, विशिष्ट जन से पूछा यों, 

जल का संकट भाई कैसे मिट पायेगा आप कहो ॥९॥

प्रश्न सुना तो बोला जय श्री पद्मप्रभ भू आयेंगे, 

निश्चित पानी खूब मिलेगा, दुःख सभी मिट जायेंगे।

कुछ ही दिन के बाद सुनो, श्री मूला नामक जाट रहा,

 उसने ही तो भूमि खनन में, पाया था जिनबिम्ब यहाँ ॥१०॥

देख कमल का चिह्न पद्मप्रभ, नाम सुयोजित कर जल्दी,

 मंदिर बनवा स्थापित करके, अद्भुत अनुपम की भक्ति ।

 तब से बाड़ा ग्राम पद्मप्रभ क्षेत्र नाम से ख्यात हुआ,

 अब तक कौन रहा है जिसके, मन का नहिं कुछ काम हुआ ॥११॥

और रही जो लंका नगरी, रावण जिसका था स्वामी,

रहा विभीषण उसका भाई, भक्त आपका अभिरामी । 

उसने अपने राजमहल में आप बिम्ब को स्थापित कर,

पूजा की थी अर्चा की थी, कार्य किये सब पूजन कर ॥१२॥

चैत्यालय बनवाया जिसमें, खम्भ हजारों लगवाए,

स्फटिकमणी के स्वर्णमयी जो, रत्नों से थे जड़वाए।

शिखर बनाया गगन चूमता, कलश चढ़ाया सोने का,

मन्दिर सुन्दर बनवाया जो, साधन था अघ धोने का ॥१३॥

केसरिया ध्वज फहरा करके, श्रेष्ठ पताका लहराई,

 घनी घण्टियाँ छोटी-छोटी, बजने वाली लगवाई।

रुन-झुन रुन-झुन बज करके वे, पद्मप्रभ का यशगाती,

उस मन्दिर पर पंचरंग की, विविध ध्वजाएँ लहराती ॥१४॥

प्रभासगिरि पर अहो आपके कल्याणक तप ज्ञान हुये,

समवसरण भी बना यहीं पर, प्रातिहार्य शुभ आठ मिले।

गंगा-यमुना दो नदियों के बीच पहाड़ी एक यहीं,

जहाँ ललित घट आदि साधु ने, करी तपस्या पुण्यमही ॥१५॥

वहीं हाय वे जल में डूबे, किन्तु न समता छोड़ी थी,

और देह से ममता तजकर, कर्म श्रृंखला तोड़ी थी।

पद्म आपकी पूजा करके, सुरियाँ नाचें गावे रे,

छम-छम छम-छम घुँघरू वाली, पायल पहने आवे वे ॥१६॥

खन-खन खन खन चुड़ियों की खनकार चित्त को मोह रही,

आप भक्ति से प्राप्त खुशी ही, सब खुशियों को रोक रही।

मैं भी नाचूँ खुश हो करके, कोटि-कोटिशः नमन करूं,

नृत्य करूँ आनन्दित होकर, पूर्व पाप का शमन करूँ ॥ १७ ॥

ढोल बजाऊँ बंशी वीणा, भेरी बजवा हरपाऊँ,

ठुमक ठुमककर उमग-उमगकर, भूल सभी को पद आऊँ ।

क्या बतलाऊँ कैसे अन्दर की बातें मैं बतलाऊँ,

किन शब्दों में किन छन्दों में, किस लय में मैं गुण गाऊँ ॥१८॥

भाव जगे हैं असंख्यात पर, प्रज्ञा साथ न देती सो,

जयमाला मैं पूर्ण करूँ फल, शुद्ध भाव की खेती हो।

अल्पबुद्धि के कारण स्वामी गलती इसमें जो कुछ हो,

क्षमा करो हे पद्मप्रभ जी! क्योंकि आप ही सब कुछ हो ॥१९॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय नमः जयमाला पूर्णा अर्घ्यं ….।

आशीर्वाद

पद्मप्रभ का विधान पूजन, जो भी करता निशदिन है,

 खिला रहेगा पंकज जैसा, नहीं फँसेगा दुर्दिन में ।

 इन्द्र बने फिर भूपति नृप के, भोग उसे भरपूर मिले, 

परम्परा से शुक्लध्यान हो, उसके सारे कर्म गले॥ 

इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्/क्षिपामि

प्रशस्ति

अनन्त चौदस का दिन प्यारा, दशलक्षण का अन्तिम है, 

लगभग त्रिंशत् भव्य जनों ने, वास किये दस उत्तम हैं।

और तीन ने पावन सोलह, सोलहकारण पर्व महा,

इसमें कर उपवास आत्म से, नेह जगाया अहो जहाँ ॥१॥

उत्तम ब्रह्मचर्य वृष को जो, सब धर्मों का ईश कहा,

बार सु चौथा वीर मोक्ष पच्चीस शतक ब्यालीस रहा।

श्रेष्ठ जतारा नगरी में यह पद्मप्रभ की अर्चा का,

विधान पूरा हुआ नेमि अरु, पार्श्वनाथ अनुकम्पा पा ॥२॥ 

शान्ति वीर शिव ज्ञान सिन्धु के विद्यासागर शुभतम है,

विवेकसागर शिष्य दूसरे, सूरि ज्ञान के तपधर थे।

उनकी शिष्या रही पाँचवीं, अल्पबुद्धि के द्वारा ही,

लिखा गया यह विधान जिससे, मिलती सुख की धारा जी ॥३॥

इसमें जो भी गलत हुआ हो प्रमाद से सब माफ करे,

शास्त्र निपुण जन इसे सुधारें, शिव का रास्ता साफ करे।

रवि शशि भूधर जलनिधि को यह धरती जब तक धारे जी,

पूजा करके भव्य लोक में, पाप कर्म को वारे जी ॥४॥

 

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