Site icon Mahaveer Vaani

देवशास्त्रगुरु पूजा

देवशास्त्रगुरु पूजा

केवल रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर,

उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ।

सद्दर्शन बोध चरण पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण,

उन देव परम आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन ॥

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।

अष्टक

इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया ।

यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥

मैं भूल स्वयं निज वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ ।

अब निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्या मल धोने आया हूँ ॥१॥

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु ! अपने-अपने में होती है ।

अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है ॥

प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित होकर संसार बढ़ाया है ।

संतप्त हृदय प्रभु ! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है ||२||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा

उज्ज्वल हूँ कुन्द धवल हूँ प्रभु ! पर से न लगा हूँ किंचित भी

फिर भी अनुकूल लगें उन पर करता अभिमान निरन्तर ही ।

जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव की खण्डित काया ।

निज शाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरणरज में आया ||३||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।

यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं ।

निज अन्तर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं ॥

चिंतन कुछ फिर संभाषण कुछ, वृत्ति कुछ की कुछ होती है ।

स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर का कालुष धोती है ॥४॥

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।

अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु ! भूख न मेरी शान्त हुई ।

तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥

युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ ।

पंचेन्द्रिय मन के षट्रस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ ||५||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवधं निर्वपामीति स्वाहा।

जग के जड़ दीपक को अब तक समझा था मैंने उजियारा ।

झंझा के एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ॥

अतएव प्रभो! यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ ।

तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी ।

मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी ॥

यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ ।

निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ ||७||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।

जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है ।

में आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥

मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति रमा सहचर मेरी ।

यह मोह तड़ककर टूट पड़े प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी ॥८॥

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है ।

काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है।

अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है

दर्शन बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अर्हत अवस्था है ।

यह अर्घ समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अर्ध बनाऊँगा

और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अर्हत अवस्था पाऊँगा || ९ ||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।

जयमाला (बारह भावना)

भव वन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा ।

मृग-सम मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ||१||

झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें ।

तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझायें ॥२॥

सम्राट् महा-बल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ।

अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ||३||

संसार महा दुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में ।

मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन-कामिनि-प्रासादों में ॥४॥

मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते ।

तन धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते ॥५॥

मेरे न हुये थे, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ।

निज में पर से अन्यत्व लिये, निज सम रस पीने वाला हूँ ||६||

जिसके शृङ्गारों में मेरा, यह मँहगा जीवन घुल जाता ।

अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ॥७॥

दिन रात शुभाशुभ भावों से मेरा व्यापार चला करता ।

मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ॥८॥

शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्थल ।

शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल ||९||

फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें ।

सर्वाङ्ग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ॥१०॥

हम छोड़ चले यह लोक तभी, लोकांत विराजे क्षण में जा ।

निज लोक हमारा वासा हो, फिर भव बन्धन से हमको क्या ||११||

जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो ! दुर्नयतम सत्वर टल जावे ।

बस ज्ञाता-द्रष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे ||१२||

चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी |

जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथी ||१३||

देव स्तवन

चरणों में आया प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे ।

मुरझाई ज्ञान लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे ||१४||

सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला ।

परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला ||१५||

तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा ।

अब तक न समझ ही पाया प्रभु ! सच्चे सुख की भी परिभाषा ||१६||

तुम तो अविकारी हो प्रभुवर ! जग में रहते जग से न्यारे ।

अतएव झुके तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे ||१७||

शास्त्रस्तवन

स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभ नय के झरने झरते हैं ।

उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव वारिधि तिरते हैं ॥१८॥

गुरुस्तवन

हे गुरुवर ! शाश्वत सुख दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है ।

जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है ॥१९॥

जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो ।

अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो ॥२०॥

हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों ।

तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ॥२१॥

करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में ।

समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घड़ियों में ||२२||

अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ ।

भव बन्धन तड़ तड़ टूट पड़े, खिल जावें अन्तर की कलियाँ ||२३||

तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ ।

दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ||२४||

ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञान दीप आगम ! प्रणाम ।

हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ-पंथी गुरुवर ! प्रणाम ।।

|| पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ||

Exit mobile version