देवशास्त्रगुरु पूजा
केवल रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर,
उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ।
सद्दर्शन बोध चरण पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण,
उन देव परम आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अष्टक
इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, लावण्यमयी कंचन काया ।
यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया ॥
मैं भूल स्वयं निज वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ ।
अब निर्मल सम्यक् नीर लिये, मिथ्या मल धोने आया हूँ ॥१॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु ! अपने-अपने में होती है ।
अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, यह झूठी मन की वृत्ति है ॥
प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित होकर संसार बढ़ाया है ।
संतप्त हृदय प्रभु ! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है ||२||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
उज्ज्वल हूँ कुन्द धवल हूँ प्रभु ! पर से न लगा हूँ किंचित भी
फिर भी अनुकूल लगें उन पर करता अभिमान निरन्तर ही ।
जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव की खण्डित काया ।
निज शाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरणरज में आया ||३||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं ।
निज अन्तर का प्रभु भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं ॥
चिंतन कुछ फिर संभाषण कुछ, वृत्ति कुछ की कुछ होती है ।
स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ जो, अन्तर का कालुष धोती है ॥४॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से, प्रभु ! भूख न मेरी शान्त हुई ।
तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥
युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ ।
पंचेन्द्रिय मन के षट्रस तज, अनुपम रस पीने आया हूँ ||५||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवधं निर्वपामीति स्वाहा।
जग के जड़ दीपक को अब तक समझा था मैंने उजियारा ।
झंझा के एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ॥
अतएव प्रभो! यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूँ ।
तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर दीप जलाने आया
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यः मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़ कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी ।
मैं राग-द्वेष किया करता, जब परिणति होती जड़ केरी ॥
यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ ।
निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर गंध जलाने आया हूँ ||७||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है ।
में आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥
मैं शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्ति रमा सहचर मेरी ।
यह मोह तड़ककर टूट पड़े प्रभु! सार्थक फल पूजा तेरी ॥८॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है ।
काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनन्द अमृत पीता है।
अनुपम सुख तब विलसित होता, केवल रवि जगमग करता है
दर्शन बल पूर्ण प्रकट होता, यह ही अर्हत अवस्था है ।
यह अर्घ समर्पण करके प्रभु! निज गुण का अर्ध बनाऊँगा
और निश्चित तेरे सदृश प्रभु! अर्हत अवस्था पाऊँगा || ९ ||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला (बारह भावना)
भव वन में जी भर घूम चुका, कण कण को जी भर भर देखा ।
मृग-सम मृग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ||१||
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें ।
तन जीवन यौवन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझायें ॥२॥
सम्राट् महा-बल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ।
अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या ||३||
संसार महा दुख सागर के, प्रभु दुखमय सुख आभासों में ।
मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन-कामिनि-प्रासादों में ॥४॥
मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते ।
तन धन को साथी समझा था, पर वे भी छोड़ चले जाते ॥५॥
मेरे न हुये थे, मैं इनसे, अति भिन्न अखण्ड निराला हूँ।
निज में पर से अन्यत्व लिये, निज सम रस पीने वाला हूँ ||६||
जिसके शृङ्गारों में मेरा, यह मँहगा जीवन घुल जाता ।
अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता ॥७॥
दिन रात शुभाशुभ भावों से मेरा व्यापार चला करता ।
मानस वाणी और काया से, आस्रव का द्वार खुला रहता ॥८॥
शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अन्तस्थल ।
शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से जागे अन्तर्बल ||९||
फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें ।
सर्वाङ्ग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें ॥१०॥
हम छोड़ चले यह लोक तभी, लोकांत विराजे क्षण में जा ।
निज लोक हमारा वासा हो, फिर भव बन्धन से हमको क्या ||११||
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो ! दुर्नयतम सत्वर टल जावे ।
बस ज्ञाता-द्रष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे ||१२||
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी |
जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहे जग के साथी ||१३||
देव स्तवन
चरणों में आया प्रभुवर, शीतलता मुझको मिल जावे ।
मुरझाई ज्ञान लता मेरी, निज अन्तर्बल से खिल जावे ||१४||
सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला ।
परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला ||१५||
तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा ।
अब तक न समझ ही पाया प्रभु ! सच्चे सुख की भी परिभाषा ||१६||
तुम तो अविकारी हो प्रभुवर ! जग में रहते जग से न्यारे ।
अतएव झुके तव चरणों में, जग के माणिक मोती सारे ||१७||
शास्त्रस्तवन
स्याद्वादमयी तेरी वाणी, शुभ नय के झरने झरते हैं ।
उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव वारिधि तिरते हैं ॥१८॥
गुरुस्तवन
हे गुरुवर ! शाश्वत सुख दर्शक, यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है ।
जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है ॥१९॥
जब जग विषयों में रच पच कर, गाफिल निद्रा में सोता हो ।
अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो ॥२०॥
हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों ।
तब शान्त निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ॥२१॥
करते तप शैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में ।
समता रस पान किया करते, सुख दुख दोनों की घड़ियों में ||२२||
अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ ।
भव बन्धन तड़ तड़ टूट पड़े, खिल जावें अन्तर की कलियाँ ||२३||
तुम सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दीं जग की निधियाँ ।
दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ||२४||
ॐ ह्रीं श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञान दीप आगम ! प्रणाम ।
हे शान्ति त्याग के मूर्तिमान, शिव-पथ-पंथी गुरुवर ! प्रणाम ।।
|| पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ||